Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
View full book text
________________
अर्थात् समवसरण का यथार्थ स्वरूप जानने के लिए बृहत्कल्प भाष्य, आवश्यक सूत्र और पर्युषण कल्प-इन तीनों को देखना और मान्य करना चाहिए । समवायांग सूत्र के इस मूल पाठ से प्रमाणिक कोटि में परिगणित होने वाले इन तीनों को अमान्य करने का अर्थ है ३२ मूलागमों की मान्यता भी केवल कथन मात्र है, वास्तव में उस मूल सूत्र का भी आदर नहीं करते हैं 1
स्थानांग सूत्र में तीन प्रत्यनीक- सूत्र के विरुद्ध आचरण करने वाला, अर्थ के विरुद्ध आचरण करने वाला, और दोनों के प्रतिकूल व्यवहार वाला - बताये हैं। अब इस कल्प और समवसरण के अर्थ को ग्रहण न करने से जिन प्रतिमा का विरोधी तीनों प्रकार का प्रत्यनीक हुआ । क्योंकि समवसरण में प्रभु पूर्वाभिमुख बैठते है और बाकी की तीन दिशा में देवता अरिहंत की मूर्ति विराजमान करते हैं । इसका वर्णन बृहत्कल्प भाष्य में इस प्रकार है
आयाहिण पुव्वमहो, तिदिसिं पडिरुचया य देवकया । जेगणी अन्नोवा, दाहिण पुव्वे अदूरम्मि ॥” (११९३) जे ते देवेहिं कया, तिदिसि पडिरुवगा जिणवरस्स तेसिंपि तप्पभावा, तयाणुरूचं हवइ रूवं ॥ (११९४)
अर्थात्- प्रभु चैत्य को प्रदक्षिणा देकर पूर्वाभिमुख बिराजमान होते हैं, शेष तीन दिशाओं में देवता प्रभु के समान छत्र चामरादि से अलंकृत तीन प्रतिमा बनाकर सिंहासनारूढ़ करते हैं, जिससे चारों ही दिशा में प्रभुके दर्शन होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति यही समझता है कि भगवान मेरी ओर मुख करके बोल रहे हैं। भगवान के अतिशय से ही प्रतिमायें भी साक्षात प्रभु के समान भासती है । अनुयोग द्वार सूत्र में उपोद्घात निर्युक्ति को २६ द्वारों मैं से निगम द्वार में भ. महावीर स्वामी के केवलज्ञान बाद देव निर्मित समवसरण का वर्णन भी बिलकुल ऐसा ही किया गया है । बृहत्कल्प भाष्य में चैत्य का वर्णन करते हुए लिखा है
1
साहम्मियाण अट्ठा, चउव्विहे लिंगओ जह कुडुंबी । मंगल सासय भत्तीइ जं कयं तत्त्थ आदेसो ॥(१७७४) अरहंत पइट्ठाए.. गाम अद्धेसु । (१७७६) “निइयाइं सुरलोए भत्तिकयाइं तु भरहमाईहिं ॥ (१७७७)
अर्थात् चैत्य चार प्रकार के - साधर्मिकों के लिए बनाया गया साधर्मिक चैत्य; गृहादिके दरवाजे पर मंगल के लिए स्थान देव प्रतिमा मंगल चैत्य; चारों निकायके देवों के भवन, नगर, विमान में एवं मेरु, वैताढ्य, नंदीश्वर, रुचकप्रदेशादि के शाश्वत चैत्य, प्रभु भक्ति के लिए मानव
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
३५४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org