Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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आठवें अध्याय में 'चारित्र' के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। इसमें अतिचार के स्वरूप, अठारह पापस्थानों की समझ, भक्ष्याभक्ष्य इत्यादि के दोषों का सविस्तार निरुपण किया गया है।
नवम् अध्याय में श्रावक के दिनकृत्य की करनी की सलाह देते हुए आहार-विहार, मलोत्सर्ग, दंत धावन, केश निखार, स्नान, निद्रा, द्रव्यपूजा, भावपूजा, सामयिक, स्नात्र आदि में श्रावक का व्यवहार कैसा होना चाहिए? देव-गुरु की आशातना से कैसे बचें? माता-पिता सहोदर, स्त्री, पुरुष, गुरु, स्नेही, सम्बंधी, नगरजनों से कैसा हमारा व्यवहार हो? आदि से सम्बंधित मार्गदर्शन इस लाक्षणिक ढंग से दिया गया है कि जैसे व्यवहार शास्त्र का पाठ्यक्रम कॉलेज में पढ़ाया जाता हो । अर्थात् यह ग्रंथ व्यवहार शास्त्र का भी विश्वकोष है।
दसवें अध्याय में श्रावक के रात्रिकृत्य, पर्वकृत्य, चातुर्मासिक कृत्य, सांवत्सरिक कृत्य, जन्मकृत्य आदि पांच कृत्यों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है।
ग्यारहवें अध्याय में श्री ऋषभदेव भगवान से श्री महावीर स्वामी तक जैन मतादिक शास्त्र के अनुसार इतिहास के रूप में पूर्ववृत्तांत दिया गया है। इसे अलग-अलग अध्यायों में विभाजित कर कुरुवंश एवं यज्ञोपवित की उत्पत्ति का वर्णन, याज्ञवल्क, सुलसा, पीप्पलाद तथा पर्वत प्रमुख से पुन: वेदों के स्थान पर हिंसा युक्त वेदों की रचना हुई । उसका स्वरूप ऊपर लिखित महापुरुषों के कथनानुसार निरुपित किया है।
बारहवें अध्याय में शासनपति श्री महावीर स्वामी से आज पर्यन्त ऐतिहासिक वृत्तांत को रचनात्मक शैली से समझा कर ग्रंथ का समापन किया है।
__ जैन सिद्धान्तों के जिज्ञासु के लिए यह एक मात्र ग्रंथ है जो ऐसा मार्गदर्शक है, जिससे जैन दर्शन का सर्वोत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त हो सकता है । सचमुच गुरुदेव ने 'गागर में सागर' भर दिया है।
आचार्य श्री विजयानंद सूरि एवं उनका प्रमुख ग्रन्थ 'जैनतत्वादर्श'
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