Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
View full book text
________________
यनसंपादितं तुभ्यं श्रद्धयोत्सृज्यते मया ॥३ ॥
अर्थः दुराग्रह रूपी अहंकार को नष्ट करने में आप सूर्य समान हैं। हितकारी आदेशामृत के एक अथाह समुद्र हैं । संदेह की वल्लरी से मुक्त करने वाले और जैन धर्म की धुरा धारण करने वाले भी आप ही हैं ।
सहृदय पुरुषों के अज्ञान तिमिर को विछिन्न करने के लिए आपने 'अज्ञान तिमिर भास्कर' एवं ‘जैनतत्त्वादर्श' नाम के ग्रन्थों की रचना की है ।
आपने मेरे समस्त प्रश्नों का निराकरण किया है। वास्तव में आप शास्त्र - पारंगत हैं । फलस्वरूप मेरे द्वारा यथेष्ट श्रमपूर्वक संपादित प्रस्तुत ग्रन्थ को कृतज्ञता के प्रतीक स्वरूप मैं श्रद्धासिक्त हो, आपको सादर समर्पित करता हूं ।
पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज ने अपनी अद्भुत प्रवचन प्रभावकता के बल पर जिन शासन की महती प्रभावना की है। पंजाब में ओसवालों के अतिरिक्त उन्होंने मालेरकोटला के अग्रवालों को और लुधियाना के अहलुवालियों को जैन बनाया था। जैन धर्म के घोर विरोधियों को भी उन्होंने जैन धर्म के प्रशंसक और उपासक बनाया ।
हजारों जैन जो उस समय जैन धर्म छोड़कर अन्य धर्मों में सम्मिलित हो रहे थे उन्हें बचाया और पुन: जैन धर्म में स्थिर किया ।
राजस्थान के जोधपुर शहर में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के ५०० घर थे । वे घट कर केवल ५० रह गए थे । उन्होंने वहां दो चातुर्मास किए। ई. सन् १८८३ में यहां दयानंद सरस्वती के साथ उनका शास्त्रार्थ होना निश्चित हुआ था । परंतु इस शास्त्रार्थ होने के निश्चित दिन के पहले ही जहर खिलाने से दयानंद का देहांत हो गया। जोधपुर की जनता ने उसी वर्ष पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज को 'न्यायाम्भोनिधि' पद से विभूषित किया था ।
जहां लेखक नहीं पहुंच पाता वहां उसका साहित्य पहुंच जाता है। पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के सम्पूर्ण साहित्य का लक्ष्य जैन धर्म का प्रचार और प्रसार है। उनका साहित्य जैन धर्म और दर्शन के स्वरूप को ही व्यक्त करता है। अपने साहित्य के द्वारा उन्हें जैन धर्म के प्रचार और प्रसार में अत्यधिक सफलता मिली। मूर्तिपूजा विषयक उनकी पुस्तक पढ़कर कई स्थानकवासी साधु संविज्ञ परंपरा में दीक्षित हो गए थे । 'अज्ञान तिमिर भास्कर' पढ़कर कई हिन्दू संन्यासी जैन धर्म के प्रशंसक बने थे । उनके साहित्य के दूरगामी परिणाम के अनगिनत उदाहरण है । यहां हिन्दू संन्यासी योगजीवानंद सरस्वती का एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा ।
I
श्रीमद् विजयानंद सूरिः जीवन और कार्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
२९५
www.jainelibrary.org