Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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जिस घर जाएगी, उसी की कहलाएगी; अलबत् उसकी वास्तविक मालिकी तो हीरासिंह की ही मानी जाएगी। ठीक उसी भाँति जैन दर्शन के सिद्धांत भले ही अन्य दर्शनावलंबियों ने स्वीकर कर लिए हों.. अपना लिए हों, उन पर तथाकथित दर्शन की मुहर लग गई हो.. फिर भी जो सच्चा तत्त्वचिंतक, दार्शनिक होगा वह नि:सकोच यह घोषणा करते तनिक भी नहीं हिचकिचाएगा कि षड्दर्शन यह जिनशासन का मूल अंग है और अन्य दर्शनावलंबियों ने जिनशासन रूपी प्रवाह के ही उक्त जल को बेखटके अपने-अपने पात्र में भर लिया है.. संगृहीत कर लिया है । तथापि अपने पात्र का जल कभी भी कम होने अथवा खत्म होने का डर बना रहना सहज स्वाभाविक है। क्योंकि उधार लिया हुआ उक्त जल तुम्हें पर्याप्त मात्रा में संतुष्ट नहीं कर सकता, साथ ही संभव है कि वह उतना निर्मल भी नहीं होगा। जब कि जिनशासन के संबंध में ऐसा कोई डर मन में संजोने की कतई जरूरत नहीं है। जिनशासन प्राय: कहता है : तुम भला बार-बार विभिन्न स्थानों पर क्यों भटकते हो? उक्त स्वच्छ शुद्ध-विशुद्ध सोने का परित्याग कर.. हीरासिंह की असली छाछ को छोड़कर दर-दर की ठोकरें क्यों खाते हो? अरे, अपने आप में आत्म-विश्वास पैदा कर जिनशासन के सिद्धांत विषयक द्वार खोलो: यह सब संत-महंत और अपने मन में सदा-सर्वदा कल्याण -भावना संजो कर रखने वाले का स्वागत करने के लिए सदैव सन्नद्ध है। जिस तरह हीरासिंह तुम्हारा स्वागत करने के लिए तैयार था, उसी तरह जिनशासन भी प्राणिमात्र के लिए अहर्निश खुला है । मन में आए उतना उसका पान कर लो और चाहो जितना संगृहीत कर लो। वह कभी कम नहीं होगा, ना ही कभी खत्म होगा।"
श्री विजयानंद सूरि: जीवन प्रसंग
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