Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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१८९३ में अमेरिका के चिकागो शहर में आयोजित सर्वधर्म परिषद् में पधारने का आमंत्रण मिला। परंतु वे जैन धर्म के अहिंसा-सिद्धान्त के अनुसार नौका-विहार कर विदेश पहुंचने में असमर्थ थे। उन्होने बैरिस्टर वीरचन्द राघवजी को जैन दर्शन के निबन्ध के साथ चिकागो भेजा। यद्यपि वे सर्व धर्म परिषद् में नहीं जा सके; परन्तु वहां पर उनका विशाल रम्य चित्र रखा गया तथा उसके नीचे यह प्रशस्ति आलेखित की गई 'मुनि आत्मारामजी ने जैन समाज के हितों का जितना ध्यान रखा है, ऐसा किसी ने नहीं रखा। ये महामुनि दिनरात जैन दर्शन के अहिंसा और अनेकान्तवाद को जगत में फैलाकर सबको मैत्री और प्रेम सूत्र में आबद्ध करना चाहते हैं । जगत का कल्याण जैन दर्शन का मर्म है और ये महामुनि अपने इस परम पावन मिशन को अहोनिशि जगत में फैल रहे हैं । ये महाशय जैन दर्शन और भारतीय दर्शन के प्रख्यात विद्वान हैं । (चिकागो स्मारिका से उद्धृत)
पंडित श्री सुखलालजी ने उनकी प्रशस्ति में कहा है: 'श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय के बाद श्रुताभ्यास प्राय: बंद हो गया था। पूज्य आत्मारामजी महाराज ने श्रुताभ्यास का स्थान सम्हाल लिया। उन्होंने बहुश्रुतता की भागीरथी प्रवाहित की। ये महर्षि संप्रदाय से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए सदा समर्पित रहे ।'
श्री सुशील 'न्यायाम्भोनिधि श्री विजयानंद सूरि' नामक ग्रन्थ में लिखते हैं कि पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज ने शुद्ध कंचन के समान जैन संघ को सुशोभित किया। इस संबंध में वे उनके बाल्य जीवन के एक प्रसंग का उल्लेख करते हैं।
'आत्मारामजी महाराज बाल्यावस्था में थे। रात्रि के समय वे अपने मातुश्री के पास शान्त मुद्रा में सोए हुए थे। माता भी निद्रालीन थी। इतने में एक चोर घर में घुसा । आत्मारामजी के हाथ-पांव में सोने के कड़े थे। चोर की नजर स्वर्ण आभूषणों पर पड़ी। उसने कड़े चुराने का चुपचाप प्रयास किया। इतने में मातुश्री जाग गई । उसने आनन-फानन में चोर को पकड़ लिया। चोर ने छुटने का अथक प्रयास किया; परंतु सब विफल । अन्त में उसने माफी मांगी और फिर भाग गया।'
सारांश यह है कि माता रूपादेवी एवं पिता गणेशचन्द्र के जुझारूपन ने पुत्र आत्मारामजी को दिव्यता, साहसिकता एवं क्रांतिकारिता से विभूषित कर दिया। जैन समाज तो क्या विश्व ऐसे महापुरुष से शुद्ध कंचन के समान सुशोभित हुआ है।
पूज्य मुनि भूषण श्रीमद् वल्लभदत्त विजयजी ने 'बिखरे मोती' पुस्तक में उनकी प्रशस्ति
पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज : लोक-मंगल के लिए अर्पित जीवन
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