Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा था। कई रोगों ने आकर उनके शरीर पर अधिकार जमा लिया था । घुटनों में दर्द रहता था, जिससे उन्हें चलने में कठिनाई होती थी । श्वास का रोग बढ़ गया था, जिससे वे थोड़ा से चलते ही हांफने लगते थे । आँखों की सर्जरी के कारण उन्हें कम दिखने लगा था। इतना होने पर भी वे अपनी कोई फरियाद नहीं करते थे । उनका सम्पूर्ण शिष्य परिवार और श्रावकगण उन्हें विश्राम लेने और औषधि सेवन का आग्रह करते थे; किन्तु उनके आग्रह पर वे कभी ध्यान नहीं देते थे । वे कहते थे कि “ शरीर तो रोग का घर है । कहां तक उसकी सेवा करोगे ।”
आंखों से उन्हें कम दिखता था, फिर भी वे लिखते थे । चलने से श्वास चढ़ता था; फिर भी लम्बे-लम्बे विहार करते थे । उनका मनोबल इतना दृढ़ था कि बड़े से बड़े रोग से भी कभी चिंतित और विचलित नहीं होते थे ।
संखतरा के नूतन जिन मंदिर की अंजन- शलाका प्रतिष्ठा के बाद उनके जीवन का एक निर्धारित लक्ष्य पूर्ण हुआ था। पंजाब में देवालय निर्मित करवाकर वे श्रावकों की श्रद्धा को स्थिर कर देना चाहते थे । पंजाब में सात मंदिर निर्मित हो जाने से उनका एक लक्ष्य पूर्ण हुआ। दूसरे लक्ष्य के रूप में वे सरस्वती मंदिरों का निर्माण करना चाहते थे ।
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वे अपने अन्तेवासी मुनि श्रीवल्लभ विजयजी से बार-बार कहते थे कि “पंजाब के श्रावकों की श्रद्धा को स्थिर रखने के लिए मंदिरों की आवश्यकता है। मंदिरों के निर्माण कार्य के बाद मेरा लक्ष्य शिक्षा मंदिरों की स्थापना करना है। गुजरानवाला पहुंचकर मैं यही कार्य अपने हाथ में लूंगा।”
संखतरा से उन्होंने गुजरानवाला की ओर विहार किया । ज्येष्ठ मास की भयंकर गरमी थी । उग्र विहार करते हुए वे पसरूर में पहुंचे। वहां सभी लोग स्थानकवासी परंपरा के जैन थे । मूर्तिपूजक सम्प्रदाय का एक भी घर नहीं था । जब यहां के स्थानकवासी जैनों को पता लगा कि पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज पधार रहे हैं तो उन्होंने एकत्र होकर यह निर्णय लिया कि हममें से कोई भी व्यक्ति उन्हें न पानी देगा न आहार ।
उस समय स्थानकवासियों के मन में पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के प्रति भयंकर विद्वेष भरा हुआ था । पसरूर में न पानी मिला न आहार । किसी एक जैनेतर घर से उन्हें थोड़ी सी छाछ मिली । उसी छाछ का एक-एक घूंट पीकर सभी ने अपने सूखे कंठ गिले किए। भयानक
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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