Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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दो सौ वर्षों से चली आ रही स्थानकवासी रुढ़ परंपरा की जंजीरों को तोड़ डालना, दो सौ वर्षों से मिल रहे संस्कारों, विचारों और श्रद्धा को परिवर्तित कर देना, एक इतिहास को बदल देना, एक प्रबल गति से बह रही धारा को मोड़ देना उनका कितना महान, अद्वितीय और अप्रतिम कार्य था। इसका अनुमान सहज ही हो जाता हैं।
पूज्य श्री विजयानंद सूरि- आत्मारामजी महाराज की जन्म भूमि पंजाब थी और पंजाब में ही उनका स्वर्गवास हुआ है। उनके जीवन का अधिकांश भाग पंजाब में ही बीता है। उन्होंने बारह चातुर्मास स्थानकवासी परंपरा में और ग्यारह चातुर्मास संविज्ञ परंपरा में दीक्षित होकर पंजाब में किए हैं। इस तरह तेईस चातुर्मास उन्होंने इस भूमि पर किए । इसलिए उनका सर्वाधिक लाभ पंजाब अर्थात् उत्तरी भारत को मिला है । इस विषय में पंजाब के श्रावक भाग्यशाली थे।
स्थानकवासी परंपरा में दीक्षित होकर वे नौ वर्ष तक गहन अध्ययन में जटे रहे। जैन शास्त्रों के अतिरिक्त हिन्दू, वैदिक, सांख्य और बौद्ध आदि धर्म और दर्शनों का भी उन्होंने उसी समय गहन ज्ञान प्राप्त किया। दसवें वर्ष में स्थानकवासी सम्प्रदाय की सत्यता को लेकर उनके मन में संशय के बीज पड़े। और पंडित रत्नचन्दजी से पढ़ने के बाद उनके विचार पूर्णरुपेण बदल गए। फिर वे स्थानकवासी वेश में रहकर मंदिर और मूर्तिपूजा का प्रचार करते रहे। यह कार्य उनका अंगारों पर चलने के मानिंद था। उन्हें इसके लिए अत्यन्त कठिन परिश्रम और संघर्ष करना पड़ा। ग्यारह वर्ष तक उन्होंने यह कार्य किया। इन ग्यारह वर्षों में उन्होंने पंद्रह साधुओं और सात हजार श्रावकों के विचार परिवर्तित कर दिए ।
पंजाब से गुजरात आने के पूर्व उन्होंने पंजाब के सात हजार श्रावकों को कह दिया था कि "मैं गुजरात जाकर आगम सम्मत भगवान महावीर स्वामी की वास्तविक श्रमण परंपरा की दीक्षा लूंगा । मैंने तुम्हें जैन धर्म का सत्य मार्ग बताया है । तुम इस सत्य पर अटल रहना।"
यहां यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि पूज्य श्री विजयानंद सूरि महाराज ने पंजाब में स्थानकवासी लोगों को मूर्तिपूजक बनाने का जो कार्य किया उनके इस कार्य में किसी छल-कपट या द्वेष या षडयंत्र या मंत्र-तंत्र या धमकी को कोई स्थान नहीं था। उन्होंने जो कुछ किया, वह हृदय की सरलता से और मन की निर्मलता से केवल सत्य की प्रतिष्ठा के लिए लोक मंगल की विशुद्ध भावना से ही किया।
वे, प्रत्येक व्यक्ति जो सत्य जानने के जिज्ञासु होते थे, उन्हें वे शास्त्र की बात बताते और कहते कि आगम प्रमाण से मुझे यह बात सत्य लगती है इसलिए मैं मानता हूँ और यह बात मुझे २८६
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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