Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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नेतृत्व
जैन धर्म में 'आचार्य' पद का अत्यन्त उच्च स्थान है। पंच परमेष्ठि में इसे तृतीय स्थान दिया हुआ है। वर्तमान में तीर्थंकर की अनुपस्थिति में इस पद को तीर्थंकर तुल्य माना जाता है। बहुत से ऐसे शास्त्रीय अनुष्ठान और विधान हैं, जो इस पद से अलंकृत होने पर ही करने की अनुज्ञा है। विशिष्ठ गुणों, विशिष्ठ कार्यों, विशिष्ठ विशेषताओं और विशिष्ठ तप: विधान के बाद ही किसी को इस पद से विभूषित किया जाता है।
जैन धर्म का इतिहास इस बात का साक्षी है कि चरम तीर्थपति श्रमण भगवान महावीर स्वामी एतं गणधर श्रीसुधर्मा स्वामी की इकसठवीं पाट पर आचार्य श्रीमद् विजय सिंह सूरिजी महाराज तिराजमान हुए। उन्हें वि. सं. १६८२ में आचार्य पद से अलंकृत किया गया था। उनके स्वर्गवास के बाद जैन धर्म और समाज में सर्वत्र यतियों का साम्राज्य छा गया। उस समय यतियों का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि कोई भी व्यक्ति उनके विरुद्ध कार्य करने की हिम्मत नहीं कर सकता था । यतियों का कहना था कि हमारे होते हुए कोई भी संविज्ञ साधु आचार्य पद से विभूषित नहीं हो सकता।
किसी की आचार्य पदवी न होने देने के पीछे यतियों का कुल कारण इतना ही था कि यदि कोई आचार्य बन जाएगा तो लोग उसी को मान सम्मान देंगे, उसी का अनुसरण करेंगे, उसी के नाम की प्रतिष्ठा और गौरव बढ़ेगा, ऐसे में हमें कोई पूछेगा नहीं। हमारा प्रभाव और प्रतिष्ठा समाप्त हो जाएगी।
बड़े-बड़े श्रीसंघ यतियों की आज्ञा मानते थे, इसलिए उपाध्याय यशोविजयजी जैसे महान दार्शनिक विद्वान को भी इस आचार्य पद से अलंकृत नहीं किया गया। संविज्ञ साधु भी उस समय यतियों की आज्ञा में रहते थे। दो सौ साठ वर्ष तक जैन धर्म और समाज पर यतियों का प्रभुत्व रहा । इतने वर्षों में कोई भी साधु आचार्य पद से अलंकृत न हो सका । दो सौ साठ वर्षों तक सुधर्मा स्वामी की पाट रिक्त रही।
दो सौ साठ वर्षों के बाद जैन धर्म और संघ-समाज को पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज जैसे विराट, अद्वितीय, विलक्षण और प्रभावशाली युगपुरुष प्राप्त हुए। जिन्होंने दो सौ साठ वर्षों से चले आ रहे यतियों के एकाधिकार एवं प्रभुत्व को नष्ट कर दिया। श्रीसंघों को उन्होंने यतियों के प्रभाव से मुक्त किया। यतियों के इस शक्तिशाली साम्राज्य को छिन्न-भिन्न एवं ढहाने में
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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