Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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गुरूजनों को क्षुब्ध व परेशान तो करते रहते हैं परन्तु ज्ञान प्राप्त करने में असफल रहते है। अगर ज्ञान की यत्किचित प्राप्ति कर भी लेते हैं तो वह उनके लिए फलदायी नहीं, कष्टदायी ही सिद्ध होती है।
शिक्षा में विनय एवं अनुशासन जैन शिक्षा पद्धति के विभिन्न अंगों व नियम-उपनियमों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा-प्राप्ति में विनय तथा अनुशासन का सर्वाधिक महत्व है। विनीत शिष्य ही गुरूजनों से शिक्षा प्राप्त कर सकता है, और उसी की शिक्षा फलवती होती है। शिक्षा जीवन का संस्कार तभी बनती है, जब विद्यार्थी गुरू व विद्या के प्रति समर्पित होगा। भगवान महावीर की अन्तिम देशना का सार उत्तराध्ययन सूत्र में है। उत्तराध्ययन सूत्र का सार प्रथम विनय अध्ययन है। विनय अध्ययन में गुरू शिष्य के पारस्परिक सम्बन्ध, शिक्षा ग्रहण की विधि, गुरू से प्रश्न करने की विधि, गुरूजनों के समीप बैठने की सभ्यता, बोलने की सभ्यता आदि विषयों पर बहुत ही विशद् प्रकाश डाला गया है। वहां विनय को व्यापक अर्थ में लिया गया है।
कहा गया है—गुरूओं की आज्ञा पालन करना, गुरूजनों के समीप रहना, उनके मनोभावों को समझने की चतुरता, यह विनीत का लक्षण है।'
विनय को धर्म का मूल माना है, और उसका अन्तिम परम फल है-मोक्ष, निर्वाण । उत्तराध्ययन में शील, सदाचार और अनुशासन को भी विनय में सम्मिलित किया गया है। और कहा है— अणु सासिओ न कुप्पिज्जा खंति सेविज्ज पंडिए। गुरूजनों का अनुशासन होने पर उन पर कुपित नहीं होवे, किंतु विनीत शिष्य क्षमा और सहिष्णुता धारण करके उनसे ज्ञान प्राप्त करता रहे । इसी प्रसंग में गुरूजनों के समक्ष बोलने की सभ्यता पर विचार किया गया है।
नापुटो वागरे किंचि पुट्ठोवा नालिये वए। गुरूजनों के बिना पूछे नहीं बोले, पूछने पर कभी असत्य नहीं बोले। गुरू किसी से बात करते हुए हो तो उनके बीच में भी नहीं बोले५ । गुरू विनय के चार लक्षण बताते हुए कहा है
१. सेलघण-कुडग-चालणि परीपूणग हंस-महिस-मेसेय- मरूग-जलुग-विराली-जाइग-गो-चेटी-आहेरी(आव. नियु ग्रा-१४५७) विशेषा. भाष्य-१४६५-६७
व्यक्तित्व के समग्र विकास की दिशा में जैन शिक्षा प्रणाली की उपयोगिता'
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