Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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शिष्य पर गर्व था। उन्हें इस बात की अत्यन्त प्रसन्नता थी कि मेरा शिष्य मेरे नाम का गौरव बढ़ाते हुए स्थानक सम्प्रदाय का प्रचार कर रहा है। भविष्य में उन्हें अपने शिष्य आत्मारामजी से कई आशाएं और संभावनाएं थी।
आत्मारामजी की बातें सुनकर उनकी सभी आशाओं और आकांक्षाओं पर एक बारगी ही पानी फिर गया । शास्त्रीय चर्चा करने में वे असमर्थ थे।
उन्होंने आत्मारामजी से कहा कि चाहे हमार ढूंढक सम्प्रदाय प्राचीन न हो, आगम सम्मत भी न हो, फिर भी वर्तमान में तो इसी का प्रचलन है। सभी लोग इसी का पालन वर्षों से करते आएं है । तुम इसके विरुद्ध कदम नहीं उठा सकते । यदि इसके विरुद्ध बातें करोगे तो सम्प्रदाय से निष्कासित हो जाओगे। चाहे हमारा सम्प्रदाय झूठा ही सही। तुम्हारा भला इसी में है कि तुम चुपचाप इसका पालन करते रहो । सत्य की बात करना सरल है, पर सत्य का पालन उतना ही कठिन है।
सत्य के उपासक पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज के लिए अपने गुरु की बात मानना असंभव था। वे इसके लिए कभी भी तैयार नहीं हो सकते थे। उनका मानना था कि संसार छोड़कर आत्मकल्याण के लिए हमने दीक्षा ली है। किसी असत्य और अवास्तविक रुढ़िग्रस्त सम्प्रदाय के निर्वाह के लिए नहीं । यदि मनुष्य जीवन दुर्लभ है तो इस सम्प्रदाय के पालन का कोई औचित्य नहीं है । लक्ष्य की प्राप्ति तो तभी हो सकती है, जब हम सही मार्ग पर चलेंगे।
पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज जैसे प्रचंड व्यक्तित्व को दी जाने वाली सलाह तो ऐसी थी कि किसी सिंह को यह कहना कि तुम गुफा में ही बैठे रहो। बाहर बहुत संकट छाएं हैं । यदि गुफा से बाहर निकलोगे तो संकटों से घिर जाओगे। क्या कभी सिंह ऐसा सुझाव मान सकता
संकटों और तूफानों का भय दिखाकर आत्मारामजी को रोकना असंभव था। बड़े से बड़े दुःख, संकट, विपत्ति और विघ्न का उनके लिए को महत्व नहीं था। किसी से डर कर अपने विचारों को मन ही में रहने देने की तो उनसे कल्पना भी नहीं की जा सकती।
वे जितने शास्त्रज्ञ थे उतने ही नीतिज्ञ और व्यवहारज्ञ भी थे। देश, काल और भान के वे ज्ञाता थे। वे सहसा कोई ऐसा अविचारणीय कदम नहीं उठाना चाहते थे, जो उन्हें अकारण ही संकट में डाल दें। ___ बहुत सोच-विचार और चिंतन-मनन के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जिस सत्य को
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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