Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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कर उनका रोम रोम पुलकित हो उठा। उन्होंने अनुभव किया कि परमात्मा के दर्शन कर अब हम संसार से पार हो गए। उनका आनंद हृदय में समाया नहीं । वे भावोद्रेक काव्य बनकर उनके मुख कमल से फूट पड़े। भगवान आदिनाथ के सर्वप्रथम दर्शन के समय उनके हृदयस्थ भाव जो स्तवन बनकर फूट पड़े थे। उस स्तवन से उनके तत्कालीन मनोभावों को पढ़ा जा सकता है । वह स्तवन निम्न है
अब तो पार भये हम साधो, श्री सिद्धाचल दर्श करीरे। आदीश्वर जिन मेहर करी अब, पाप पटल सब दूर भयोरे ॥ तनमन पावन भविजन केरो, निरखी जिनंद चन्द सुख थयोरे ॥ पुंडरीक प्रमुखा मुनि बहु सिद्धा, सिद्ध क्षेत्र हम जांच लह्योरे । पशु पंखी जहां छिनक में तरिया, तो हम दृढ़ विश्वास गह्योरे ॥२॥ जिन गणधर अवधि मुनि नाही, किस आगे हुं पुकार करूरे। जिम तिम करी विमलाचल भेट्यो, भवसागर से नाहीं डरूरे ॥३॥ दूर देशान्तर में हम उपने, कुगुरु कुपंथ को जाल पर्यो रे। श्री जिन आगम हम मन मान्यो, तब ही कुपंथ को जाल जो रे ॥४॥ तो तुम शरण विचारी आयो, दीन अनाथ को शरण दियो रे । जयो विमलाचल पूरण स्वामी, जन्म जन्म को पाप गयो रे ॥५॥ दूर भवि अभव्य नजरें न देखे, सूरी धनेश्वर एम कह्योरे । विमलाचल फर्से जो प्राणी, मोक्ष महल तिन वेग लह्योरे ॥६॥ जयो जगदीश्वर तू परमेश्वर, पूर्व नव्वाणु वार थयोरे। समवसरण रायण तले तेरो, निरखी अघ मम दूर गयोरे ॥७॥ श्री विमलाचल मुझ मन बसिओ, मानुं संसार को अन्त थयोरे। यात्राकरी मन तोष भयो अब, जन्म मरण दुःख दूर गयोरे ॥८॥ निर्मल मुनिजन जो मैं तार्या, वेतो प्रसिद्ध सिद्धान्ते कह्योरे। मुझ सरिखा, निंदक जो तारो, तारक विरुद्ध ए साच लह्योरे ॥९॥ ज्ञानहीन गुण रहित विरोधी, लम्पट धीठ कसायी खरोरे। तुम बिन तारक कोई न दीसे, जयो जगदीश्वर सिद्ध गिरि रे ॥१०॥ नरक तिर्यंचगति दूर निवारी, भवसागर की पीड़ हरी रे । आत्माराम अनघ पदपामी, मोक्ष वधू तिण लेग वरीरे ॥११॥
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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