Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
View full book text
________________
खड़े थे। ईसाइयों और आर्य समाजियों के प्रचार प्रभाव में आकर जैन अपना जैनत्व छोड़ते जा रहे थे। जैनों की संख्या निरंतर घट रही थी । न उनके पास कोई दिशा थी, न आयोजन । सम्पूर्ण समाज अस्त-व्यस्त, छिन्न-भिन्न संगठन विहीन होकर बिखराव की स्थिति में था। लोगों में ज्ञान
और विद्या के प्रति न रूचि थी, न रुझान । चारों ओर अज्ञानता और अशिक्षा का घना अंधकार छाया हुआ था।
उस समय कोई भी ऐसा महान व्यक्ति नहीं था, जो जैन धर्म और समाज को नेतृत्व प्रदान करें। जो नये विचार और नये आयाम देकर उसे संजीवन करें।
। ऐसे में जैन धर्म और समाज को ऐसे विराट् व्यक्तित्व युक्त युग पुरुष की अत्यन्त आवश्यकता थी जो उन्हें युगीन नेतृत्व प्रदान करें जो उनका मार्गदर्शन कर नयी दिशा दें, जो उनमें रस का संचार करें, नये आयाम दें और नव जागृति का शंखनाद करें । ऐसी स्थिति में पूज्य श्री आत्मारामजी जैसे सक्षम, ओजस्वी और प्रचंड व्यक्तित्व का इस क्षेत्र में आना जैन धर्म और समाज के लिए कितने महान सौभाग्य का विषय था।
वे समयज्ञ थे। युग की धारा को पहचानते थे। जैन धर्म और समाज की वर्तमान स्थिति उनकी अनुभवी, तीक्ष्ण और सूक्ष्म दृष्टि से छुपी नहीं रह सकी।
जैन धर्म जो त्रिकालदर्शी, सर्वज्ञ, अरिहंत वीतराग द्वारा प्ररूपित हुआ है, जो अनादिकाल से चला आ रहा है, जिसके पालन करने से मनुष्य का समस्त संताप, दु:ख और वेदना समाप्त होती है, जो धर्म विशुद्ध है, सनातन है और शाश्वत है, जिसके सिद्धान्त कालजयी है, जिसके तत्त्वज्ञान की बराबरी संसार का कोई भी दर्शन शास्त्र नहीं कर सकता और जिसका इतिहास भव्य गौरव से परिपूर्ण है।
उस धर्म की वर्तमान स्थिति इतनी सोचनीय और दयनीय देखकर पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज चिंतित हो गए और इसके पुनःनिर्माण एवं पुनरोद्धार का उन्होंने दृढ़ संकल्प किया। उनका यह पुनरोद्धार का संकल्प अनेक चुनौतियों से भरा हुआ था; पर पीछे हठ करने का स्वभाव उनके व्यक्तित्व में नहीं था।
सर्व प्रथम उन्होने जैन धर्म और समाज को यतियों के प्रभाव से मुक्त किया। उन्होंने अपने ओजस्वी वक्तृत्वकला के द्वारा लोगों को बताया कि भगवान महावीर स्वामी का सच्चा श्रमण-साधु कैसा होता है? वह कितना त्यागी, तपस्वी, संयमी और संसार से विरक्त होता है। यदि तुम आत्मा का कल्याण करना चाहते हो तो सच्चे, त्यागी- वैरागी और चारित्र संपन्न साधुओं के पास जाओ, उनके प्रवचन सुनो, उनकी सेवा और भक्ति करो। इसी से तुम्हारा कल्याण होगा । इन चारित्र भ्रष्ट यतियों के यंत्र-मंत्र-तंत्र, डोरो-धागों से तुम्हारा कोई कल्याण होने वाला नहीं है।
श्रीमद् विजयानंद सूरिः जीवन और कार्य
२७९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org