Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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मैने समझा है और जो सत्य आगम प्रमाणित है उस सत्य से सभी को परिचित कराना मेरा प्रथम और परम कर्तव्य है। इसके लिए मुझे सबसे पहले वैचारिक परिवर्तन लाना होगा । क्रांति का एक वातावरण मुझे बनाना होगा।
__अपने निर्णय के अनुरूप आत्मारामजी ने यह कार्य प्रारंभ कर दिया। दिल्ली में उनके पास दो मुनि पढ़ने के लिए आए । उनके नाम विश्नचंद और चम्पालालजी थे । वे अमरसिंहजी महाराज के शिष्य थे । सम्पूर्ण पंजाबी जैनों पर उनका वर्चस्व और प्रभाव था। सभी श्रावक उन्हीं के नेतृत्व का अनुसरण करते थे। उनके कई शिष्य थे। वे चाहते थे कि मेरे शिष्य आत्मारामजी से पढ़ें और उन्हीं की तरह विद्वान वक्ता बन जाएं। इसी भावना से उन्होंने अपने शिष्य विश्नचंद और चम्पालालजी को दिल्ली भेजा । वे आत्मारामजी से पहले भी एक बार मिल चुके थे।
दोनों मुनियों ने पूज्य श्रीआत्मारामजी से आगम-शास्त्र पढ़ाने की प्रार्थना की।
आत्मारामजी ने उनके समक्ष एक शर्त रखी । कहा- आगरा चातुर्मास में पंडित रत्नचंदजी महाराज से पढ़ने के बाद मेरे विचारों में परिवर्तन आया है। अपने अस्वच्छ हाथों से शास्त्र का स्पर्श न करने की मैंने प्रतिज्ञा की है । तुम्हें भी इस नियम का पालन करना होगा। इस नियम का तुम पालन कर सकते हो तो ही मैं तुम्हें पढ़ा सकता हूँ । अन्यथा तुम जा सकते हो ।
विश्नचंदजी पहले भी आत्मारामजी से एक बार पढ़ चुके थे, पहले कभी उन्होंने इस तरह की बात नहीं की थी। उनमें अचानक आए इस विचार परिवर्तन से वे अचरज में पड़ गए। - वे आत्मारामजी से पढ़ना चाहते थे और उन्हें यह विश्वास था कि आत्मारामजी जैसे महाविद्वान जो कुछ कहेंगे और करेंगे वह उचित ही होगा। इसलिए उन्होंने विनम्रता पूर्वक यह शर्त स्वीकार करली।
दोनों मुनियों का अध्ययन क्रम प्रारंभ हुआ । आत्मारामजी महाराज की पढ़ाने की शैली इतनी आकर्षक थी कि गूढ़ से गूढ़ विषय को भी वे बड़ी सरलता और स्पष्टता से समझाते थे। कोई ऐसा प्रश्न या कोई ऐसा तर्क नहीं था जिसका उत्तर उनके पास न हो । यह हो ही नहीं सकता कि पूज्य आत्मारामजी महाराज जैसे पढ़ाने वाले हों और पढ़नेवाला उनके प्रभाव से मुक्त रहें।
भगवान महावीर की श्रमण परंपरा का प्राचीन स्वरूप, मूर्तिपूजा, मुंहपत्ति का मुख पर बांधना, साधु का शास्त्रीय वेश आदि का आगमों में जहां भी उल्लेख आया, वहां उन्होंने विस्तृत रूप से सही तथ्यात्मक और वास्तविक वस्तुस्थिति का अध्ययन कराया।
परिणामत: मुनि विश्नचंदजी और चम्पालालजी दोनों ही पूर्ण रूप से आत्मारामजी के श्रीमद् विजयानंद सूरि: जीवन और कार्य
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