Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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उनके द्वारा रचित सत्रहभेदी पूजा लालित्यपूर्ण शब्दों एवं भावों की गहराई को उजागर करती है । उसे ताल और लय से गाने पर श्रोता भावविभोर हो झूमने लगता है।
उनका प्रत्येक पद्य प्रेरणा से ओतप्रोत और वैराग्य भाव जगाने वाला है।
संसार की अनित्यता का बोध कराने वाला निम्न पद्य कितना मार्मिक और संसारिक स्वरूप का प्रतिपादन करने वाला है।
यौवन धन स्थिर नहीं रहनारे, प्रात: समय जो नजरे आवे। मध्य दीने नहीं दीसे। जो मध्यान्हे, सो नहीं रात्रे, क्यों विरथा मन हिसे। पवन झको बादर विनसे, त्यूं शरीर तुम नासे। लच्छी जल तरंग वत चपला, क्यों बांधे मन आसे ॥ वल्लभ संग सुपनसी माया, इन में राग ही कैसा। क्षण में उड़े अर्क तुल्य ज्यू, यौवन जग में ऐसा॥ चक्री हरि पुरंदर राजे, मदमाते रस मोहे। कौन देस में मरी पहुँचे, तिनकी खबर न कोहे ॥ जग माया में नहीं लोभावे, आतमराम सयाने।
अजर अमर तू सदा नित्य है, जिन धुनि यह सुनि काने ॥ इस पद्य में संसार की असारता, जीवन की अस्थिरता और आत्मा की अमरता का भान कराते हुए जागृत होने की प्रेरणा दी है।
यदि इन भावों को हम हृदयंगम करें, तो सहज ही हम आत्मा को पावन कर सकते हैं।
पूज्य श्री ने समाज सुधार के लिए भी प्रेरणा दी और झूठे आडंबरों से बचने के लिए प्रस्ताव पारित कराए थे।
अमृतसर की प्रतिष्ठा के अवसर उनकी प्रेरणा से निम्न लिखित प्रस्ताव पारित हुए।
(१) गुरु महाराज के दर्शनार्थ आए अतिथियों के लिए दैनिक भोजन में दाल रोटी, शाक-भाजी आदि से सत्कार किया जाए। अत: आज से मिठाई बंध की जाती है।
(२) प्रतिष्ठा के महान अवसर पर तीन दिन वरघोड़े-प्रतिष्ठा और उससे एक दिन बाद मिठाई दी जाए। किन्तु दिन में केवल एक बार । शेष दिनों में सादे भोजन से ही आतिथ्य किया
जाए।
कर्मयोगी श्री आत्माराम जी
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