Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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सात वर्षों में उन्होंने पंद्रह हजार सूत्रों और श्लोकों को कंठस्थ कर लिया।
ई. सन् १८५९ में रतलाम के चातुर्मास में उन्होंने संत मगन स्वामी से स्थानकवासी परंपरा के मान्य सभी आगम सूत्रों को पढ़ डाला। फिर भी उनकी ज्ञान पिपासा शान्त न हुई। .
दीक्षा के पंद्रह दिन के बाद ही मुनि आत्मारामजी महाराज प्रवचन करने लगे थे। इन विगत सात वर्षों में वे प्रवचन भी करते रहे और साथ ही साथ पढ़ते भी रहे। शीघ्र ही उनकी प्रसिद्धि आगम शास्त्र पारंगत विद्वान और महान वक्ता के रूप में हो गई।
इन वर्षों में उन्होंने चारों वेदों, सभी आगमों, अट्ठारह पुराणों, मनुस्मृति, सांख्य दर्शन, वेदान्त दर्शन और बौद्ध दर्शन आदि सभी भारतीय दर्शनों का गहन अध्ययन किया।
इस बीच कुछ कारणों से उनके मन में अपने स्थानकवासी संप्रदाय के प्रति थोड़ी शंकाओं के बीज पड़ गए।
पहली शंका उनकी शास्त्रों के अर्थों के विषय में हुई । अभी तक उन्होंने जितने भी आगम शास्त्र पढ़े थे, वे सभी मूल थे । मूल सूत्रों की भाष्य, टीकाएं, चूर्णि आदि पढ़ने से उन्हें रोका गया था। बिना इनका सहयोग लिए पढ़े गए मूल आगमों के अर्थ संदिग्ध होना स्वाभाविक है।
युवा मुनि आत्माराम को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि जिन पंडितों से उन्होंने शास्त्र पढ़े थे, वे पंडित और विद्वान संत एक ही शब्द और सूत्रों के भिन्न-भिन्न अर्थ करते थे। ऐसे में उनके वास्तविक अर्थ स्पष्ट नहीं होते थे। वे अनुमानिक रूप से काल्पनिक अर्थ गढ़ लेते थे।
कुछ आगम सूत्र उन्होंने ऐसे भी देखे, जिनके वाक्यांश हरताल फेरकर मिटा दिए गए थे। जब इसका कारण उन्होंने अपने से बड़े विद्वान संतों से पूछा तो उन्होंने कहा कि इन मिटाए गए पाठों को हमें नहीं पढ़ना चाहिए। इसे पढ़ने से मिथ्यात्व लगता है।
सत्य के खोजी आत्मारामजी को इन तर्कों से संतोष नहीं हुआ। अपनी इन शंकाओं को उन्होंने जोधपुर के पंडित वैद्यनाथ पटवा के समक्ष प्रकट की।
पंडितजी ने उन्हें सुझाव दिए-आप संस्कृत और प्राकृत व्याकरण पढ़िए। इसी के साथ-साथ मूल सूत्रों के भाष्य, टीकाएं और चूर्णि भी पढ़िए । इनसे आपके मन की सभी शंकाओं का समाधान हो जाएगा।
कुछ ही महीनों में उन्होंने दोनों भाषाओं के व्याकरण पढ़ लिए। इन्हें पढ़ने से उन्हें ज्ञान का नया आलोक प्राप्त हुआ। २६४
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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