Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार संत जीवनरामजी ने जीरा से मालेरकोटला की ओर विहार किया । आत्माराम ने भी दीक्षार्थी के रूप में उनके साथ विहार किया ।
पंजाब केसरी, युगवीर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज ने पूज्य श्री विजयानंद सूरि महाराज के जीवन चरित्र ग्रन्थ 'नवयुग निर्माता' में लिखा है कि जिस दिन संत विहार किया, उस दिन माता रूपादेवी भी अपने छोटे पुत्र गुरुदत्त को लेकर जीरा आई थी। अपने बड़े पुत्र आत्माराम का स्वयं से अलग होने का उसे अत्यन्त दुःख हुआ था । वह जीरा आकर बहुत रोई थी । दस बारह कि. मी. के विहार के पहले पड़ाव तक वह अपना बच्चा लेकर साथ-साथ चली थी। संत जीवनरामजी को और आत्माराम के बहुत समझाने पर भी उसके आंसू थमते नहीं थे, ममता और वात्सल्य की साकार मूर्ति माँ रुपादेवी का मन किसी भी उपाय से मानता नहीं था । सारा दिन वह आत्माराम के साथ रही । न कुछ खाया न पीया । अन्त शाम को आत्माराम को गले लगाकर और आशीर्वाद देकर लहरा लौट आई थी ।
ई. सन् १८५३ में मालेरकोटला में सत्रह वर्षीय युवक आत्माराम स्थानकवासी परंपरा में दीक्षित हुए । उन्होंने संत जीवनरामजी का शिष्यत्व ग्रहण किया। नाम रखा गया - मुनि श्री आत्मारामजी महाराज ।
दीक्षा के बाद मुनि आत्मारामजी का अध्ययन प्रारंभ हुआ। ज्ञान के प्रति युवामुनि आत्मारामजी का अद्भुत आकर्षण था । जितने भी आगम सूत्र हैं, उन्हें वे शीघ्र ही पढ़ लेना चाहते थे । कठोर चारित्र पालन के साथ-साथ उन्होंने ज्ञान प्राप्ति को अपने जीवन का प्रमुख
लक्ष्य बनाया ।
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एक ही दिन में तीन सौ श्लोक कंठस्थ कर लेने की विलक्षण शक्ति उनमें थी । दीक्षा के बाद उनका पहला चातुर्मास पंजाब के सिरसा रानिया शहर में हुआ। उनके गुरु जीवनरामजी अधिक विद्वान नहीं थे । पर ज्ञानपिपासु मुनि आत्माराम को इसकी चिंता नहीं थी । वे जहां भी जाते, वहां पर किसी विद्वान श्रावक की या किसी विद्वान ब्राह्मण पंडित की खोज करते । उन्हें निमंत्रित करते और स्वयं को पढ़ाने का निवेदन करते। मुनि आत्मारामजी जैसे महान प्रतिभाशाली विद्यार्थी को पाकर कौन विद्वान प्रसन्न नहीं होगा ?
पहले चातुर्मास में उन्होंने रुप ऋषि से उतराध्ययन सूत्र पढ़ा। दूसरे चातुर्मास में संत रुड़मलजी से औपपातिक सूत्र पढ़ा । जयपुर में उन्होंने पंडित अमीचंदजी से आचारांग सूत्र पढा । नागौर में उन्होंने पंडित हंसराजजी से अनुयोग द्वार सूत्र पढ़ा। संत कचोरीमलजी, संत नंदरामजी और संत फकीरचंदजी से सूत्रकृतांग, प्रश्न व्याकरण, प्रज्ञापना, जीवाभिगम आदि शास्त्र पढ़े।
श्रीमद् विजयानंद सूरिः जीवन और कार्य
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