Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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जिनप्रतिमा और जैनाचार्य
- पं. श्री हंसराजजी शास्त्री परस्पराधीतविलोमपाठा सा भारती सा कमलालया च।
निसर्गदुर्बोधपदार्थविज्ञा, स्वां स्वां विभूतिं तनुतां मयीष्टाम्॥ जैन परम्परा में चैत्य शब्द के शिष्टसम्मत प्राचीन मौलिक अर्थ में प्रतिबिम्बित होने वाली जिन प्रतिमा को जैनागमों में कहां और किस प्रकार से विधेयता प्राप्त है यह एक अलग विषय है। इस विषय के विचार को किसी और समय के लिये सुरक्षित रखते हुए, इस वक्त तो हम यह देखने का यत्न करेंगे कि जैन परम्परा के विशिष्ट श्रुतसम्पन्न युगप्रधान आचार्यों का इस विषय में क्या मत है।
इस सम्बन्ध में जहां तक हमारा पर्यालोचन है, हमें तो इनके रचे हुए ग्रन्थों में जिन प्रतिमा का समर्थन अधिक स्पष्ट और असंदिग्ध शब्दों में किया हुआ दृष्टिगोचर होता है । यह बात उनके रचे हुए ग्रन्थों के कतिपय निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट हो जाती है
प्रशमरति प्रकरण' वाचक उमास्वाति ने प्रशमरति के २२ वें अधिकरण में गृहस्थ के धार्मिक कर्तव्यों के वर्णन प्रस्ताव में लिखा है
चैत्यायतनप्रस्थापनानि कृत्वा च भक्तित: प्रयतः। ।
पूजाश्च गन्धमाल्याधिवासधूपप्रदीपाद्याः२ ॥३०५ ॥ अर्थात् सम्यग् दृष्टिगृहस्थ अपनी शक्ति के अनुसार श्रद्धापूर्वक चैत्य-जिन-प्रतिमा को आयतन-मन्दिर में प्रतिष्ठित करके उनका गन्धपुष्पधूपदीप आदि सामग्री के द्वारा पूजन करे ।
जिनप्रतिमा और जैनाचार्य
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