Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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थे। वे इस वेष का त्याग करके शास्त्रीय वेष परिधान करना चाहते थे। खोज करने पर उन्हें पता चला कि मूर्तिपूजक साधु परंपरा का वेश पूर्णत: शास्त्रीय है और उनकी दीक्षा की विधि भी आगमों के अनुसार है।
वे शास्त्रीय दीक्षा लेने के लिए पंजाब से चलकर अहमदाबाद आए और मुनि श्री बुटेरायजी महाराज का शिष्यत्व ग्रहण कर उन्होंने आगम सम्मत साधु वेष धारण किया।
यहां चिंतनीय विषय यह है कि आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराज शास्त्रों के स्वयं पारगामी विद्वान थे। शास्त्रीय साधु वेष का उन्हें पूर्ण ज्ञान था। स्थानकवासी परंपरा में वे बचपन से ही दीक्षित हो गए थे। सुदीर्घ दीक्षा पर्याय था उनका इस परंपरा का । जिनके पास उन्होंने दीक्षा ग्रहण की वे बुटेरायजी महाराज कोई उच्चकोटि के विद्वान भी नहीं थे। सच कहा जाए तो उस समय मूर्ति पूजक साधुओं में कोई भी साधु श्री विजयानंद सूरि महाराज जैसा महान विद्वान नहीं था। यदि वे चाहते तो मूर्ति पूजक साधु परंपरा का शास्त्रीय वेष स्वयं धारण कर सकते थे। किसी का शिष्यत्व ग्रहण किए बिना ही वे अपने पुराने दीक्षा पर्याय को कायम रखकर अन्य साधुओं से बड़े हो सकते थे। उनके साथ पंद्रह साधु साथ थे वे चाहते तो अपने नाम का एक अलग स्वतंत्र गच्छ या समुदाय भी चला सकते थे। वे मन चाहा निर्णय करके दुनिया को अपने चरणों में झुका सकते थे। अपना अलग रास्ता बनाने की उनमें परिपूर्ण क्षमता, सामर्थ्य और शक्ति थी। साधुओं और श्रावकों के विशाल समुदाय का उनके पास पीठबल था।
इतना होने के बावजूद उन्होंने अमृत क्रिया को सर्वोपरी स्थान दिया। शास्त्रीय क्रिया-अनुष्ठान का सम्मान करते हुए उन्होंने मुनि श्री बुटेरायजी महाराज से विधिवत् दीक्षा ग्रहण की और स्थानकवासी दीक्षा पर्याय समाप्त करके उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। यह उनके आदर्श चारित्र की महानता और विशेषता थी। साधुता का इससे बड़ा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ
शास्त्रीय परंपरा के अनुसार कोई भी साधु बिना योगद्वहन किए गणि, पंन्यास, उपाध्याय या आचार्य नहीं बन सकता। श्रीमद् विजयानंद सूरि महाराज भी बिना योगद्वहन किए पंच परमेष्ठि के तृतीय पद पर आसीन नहीं होना चाहते थे। वे आचार्य पद के महत्त्व, गरिमा और जिम्मेवारी को भलीभांति समझते थे । आचार्य बनने की उन्हें कोई महत्त्वाकांक्षा भी नहीं थी। • पालीताणा में समग्र भारत के जैन संघों ने उन्हें आचार्य पद पर आसीन होने की विनती की तो उन्होंने स्पष्टत: उस विनती को अस्वीकार कर दिया और कहा कि इस महान पद के लिए मैं
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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