Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
View full book text
________________
झांझरिया मुनि मदनब्रह्म राजकुमार के ३२ रानियां थी परन्तु उद्यान में क्रीड़ा करते हुये एक बार मुनिराज से वैराग्य की वाणी सुन दीक्षा ग्रहण की । विहार करते हुये जब एक समय खंभात नगरी में पधारे तो गोचरी के लिये जाते मुनि को किसी शेठ की शेठानी जो ज्वर से पीड़ित थी मुनिराज को गोचरी के लिये घर पर बुलाकर दरवाजे बन्द कर दिये । व्रत में अडिग मुनि से जब शेठानी काम वासना पूर्ण नहीं कर पाई तो मुनिराज के बाहर निकलते समय शेठानी ने उनके पैर में लपट लगाई जिससे शेठाणी के पैर की एक झांझर मुनि के पैर में बन्ध गई । यह सब दृश्य नगर का राजा देख रहे थे जब शेठानी के शोर शराबे से कि मुनि मेरा शिमल खंड करके जा रहा है तो लोग मुनि को मारने लगे मगर राजा के कहने पर सच्चाई मालूम हुई और शेठाणी को देश निकाला दिया। मदनब्रह्म मुनि तभी से झांझरिया मुनि कहलाये। एक बार ऐसा हुआ कि मुनि जब उज्जैनी नगर में राजमहल के पास से जा रहे थे तो झरोखे में बैठे राजा-रानी ने उन्हें देखा और रानी ने अपने भाई-मुनि को देखा तो आंखों में आंसू आ गये । यह देख राजा के मन में वहम उत्पन्न हुआ और राजा ने सेवक को आज्ञा दी कि मुनि को बड़े खड्डे में उतार मुनि का शिरच्छेद कर दिया जाय। शिरच्छेद होने से पूर्व मुनि ने उच्च भावना आते हुये केवलज्ञान को प्राप्त किया। और अब राजा को विदित हुआ कि मुनिराज रानी के भाई थे तो पश्चाताप की अग्नि में झूझते हुए राजा को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
अषाढाभूति ११ वर्ष की उम्र में अषाढाभूति अणगार ने धर्म रुचि गुरू के पास दीक्षा अंगीकार कर विद्या बल से अनेक लब्धियों प्राप्त कर अलग अलग रूप को धारण करने वाली लब्धि भी प्राप्त की। एक बार किसी नट के वहां स्वादिष्ट और सुगंधित भोजन वोहराने पर और मोदक प्राप्त करने की तीव्र इच्छा से अलग अलग रूप धारण कर मोदक के लिये गये । परन्तु कुशल नट ने इस बात को समझा कि मुनि नाटक करने की कला में पारंगत है अपनी दो पुत्रियों के मोहजाल में मुनि को फंसा दिया। गुरू के लाख समझाने पर भी मुनि वेश त्याग नट के वहां रहने लगे। परन्तु एक बार दोनों नट पलियों के विभित्स स्वरूप को देख अपने मन को धिक्कारते हुये पुन: गुरू के पास जाने को तत्पर हुये परन्तु नट पलियों के भरण पोषण हेतु उन्होंने एक बार पुन: ५०० राजकुमारों के साथ भरतेश्वर का नाटक हुबहू किया और हाथ की अंगुली की बीटी नीचे गिरते गिरते अनित्य भावनाओं भाते हुये केवलज्ञान को प्राप्त किया।
जैन दर्शन और केवलज्ञान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org