Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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मुझे सखेद कहना पड़ता है कि, – अनेक ऐसी प्रकृतिवाले होते है कि, अगर कोई कुछ पूछने आता है तो उसे अपने माने हुए शास्त्रों के प्रमाण देकर मनाने का प्रयत्न करते है। अगर वह नहीं मानता है तो उसे तुम नास्तिक हो, तुम्हें धर्म पर श्रद्धा नहीं है, आदि ऐसे कटु शब्दों का पान कराते हो कि, वह फिर कभी तुम्हारे पास नहीं आता । इतना ही नहीं वह जहाँ जाता है वहीं उनकी निंदा करता है । मगर उन महाशयों को यह ख्याल नहीं आता कि, अगर वह हमारे माने हुए शास्त्रों के प्रमाणों को स्वीकारता ही होता तो वह इस तरह उल्टे सीधे हमसे प्रश्न क्यों करता। और अपने समान शास्त्रों पर श्रद्धा रखने वाले को मना दिया तो इसमें बड़ी बात कौनसी हो गई, सच्ची बड़ाई तो तब है जब श्रद्धाहीन से श्रद्धावान बन जाय । ऐसी शक्ति आचार्य श्री में थी। इसका उदाहरण मैं ऊपर दे चुका हूँ। वे लोग भी भली प्रकार जानते हैं जिन्हें उनके दर्शनों का और व्याख्यान श्रवण का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
आचार्य श्री में ऐसी कला थी कि, वे सामने वाले के मान्य शास्त्रों के अनुसार ही उसे समझा देते थे और अपना सिद्धान्त उसके गले उतार देते थे । वे इस महासूत्र का हमेशा पालन करते थे। कि,"सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियं ।” (सत्य और प्रिय बोलो । अप्रिय सत्य न बोलो) उनके हृदय पट पर महावीर स्वामी के साथ जो संवाद हुआ था, वह बराबर अंकित था। जब गौतम स्वामी भगवान महावीर के पास आये थे तब वे शिष्य की तरह न आये थे । वे वादी की तरह भगवान महावीर को इन्द्रजालिया समझ जीतने के लिए आये थे। मगर महावीर स्वामी ने उन्हें ऐसे मधुर शब्दों द्वारा संबोधन किया और उनके मान्य शास्त्रों द्वारा ही उन्हें समझाया कि, वे तत्काल ही समझ गये। क्या इस बात को हम जानते नहीं हैं, जानते तो हैं, मगर उसका आशय समझने में फर्क रह जाता है । जैसे एक ही कुएं का पानी सारे बगीचे में जाता है, मगर जैसा पौधा होता है, वैसा ही उस पर पानी का असर होता है, बबूल के पौधे से काँटा का वृक्ष होता है और आम के पौधे से आम का वृक्ष । वैसे ही एकसी वाणी भी ग्राहक और पात्र के अनुसार परिणित होती है।
___ महानुभावों ! स्वर्गीय महाराज साहब की गम्भीरता का आपने दूसरा उदाहरण सुना, जो दो उद्देश्य बाकी रहे हैं उन्हें संक्षेप में वर्णन कर मैं अपना प्रवचन समाप्त करूँगा।
जीरे (पंजाब) में एक ईसाई आचार्य जी के पास आया और उद्धता के साथ बोला :- तुम अहिंसा अहिंसा चिल्लाकर माँस खाने की मनाई करते हो, मगर तुम खुद मांसाहार से कहाँ बचे
श्री आत्मानंद जयंती
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