Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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शारीरिक, मानसिक, विकास के समग्र साधन काम में लिये जाते थे और शिक्षार्थी को समाज में सम्मानपूर्ण आजीविका तथा उच्च जीवन स्तर यापन के योग्य बनाया जाता था ।३
आज विद्यार्थी के सामने शिक्षा प्राप्त करने का सबसे पहला उद्देश्य है- डिग्री (उपाधि) प्राप्त करना तथा उसके पश्चात कोई रोजगार प्रधान शिक्षण लेना । इन सबके पीछे, आजीविका प्राप्त करने का ही मुख्य उद्देश्य रह गया है। आज की शिक्षा वास्तव में एकांगी है। विद्यार्थी के सामने भी बहुत सीमित छोटा लक्ष्य रहता है, और गुरू के सामने केवल-अपनी आजीविका (नौकरी) का ध्येय रहता है, इसलिए शिक्षा फलदायिनी नहीं होती और न ही जीवन का विकास कर पाती है। किंतु प्राचीन काल के संदर्भो से यह पता चलता है कि कला शिक्षण का उद्देश्यआजीविकोपार्जन करना मात्र नहीं था, किंतु छात्र के व्यक्तित्व का संतुलित समग्र विकास करना उद्देश्य था। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात व्यक्ति समाज में सम्मानपूर्ण जीवन जी सके और साथ ही समाज के बहुमुखी विकास में योगदान कर सके शिक्षा का यह प्रथम उद्देश्य था।
इसके साथ ही शिक्षा प्राप्त करने का एक महान उद्देश्य भी है- और वह है- आत्मज्ञान प्राप्त करना । जीवन में अर्थ प्रथम आवश्यक है, परन्तु सर्वोपरि आवश्यकता नहीं । मनुष्य के मन की भूख असीम है, अनन्त है, इसे, धन, यश, सत्ता आदि की खुराक तृप्त नहीं कर सकती । मन की शान्ति के लिए केवल एक ही उपाय है, और वह है- आत्मज्ञान । आत्मविद्या । विद्यार्थी के सामने ज्ञान प्राप्ति का विशिष्ट और महान उद्देश्य यही है।
दशवैकालिक सूत्र में श्रुत समाधि१ का वर्णन है । जिसका अर्थ है ज्ञानप्राप्ति से चित्त की समाधि और शांति की खोज करना । उसके लिए शिक्षार्थी अपने मन में एक पवित्र और महान लक्ष्य निश्चित करता है।
१. अध्ययन करने से मुझे आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होगी।
२. ज्ञान प्राप्ति से मेरे चित्त की चंचलता दूर होगी, एकाग्र चित्त बन सकूँगा। १. दशवै. ९/२/२१ जिनदासचूर्णि पृ. ३४१, दसवैआलियं- पृ. ४३९ २. देखें- त्रिषष्टिशलाका- १/२, आवश्यकचूर्णि तथा महापुराण पर्व-१६ ३. इसी के साथ-भगवती ३१, ज्ञाता सूत्र- १/२, अन्तकृद्दशा सूत्र- ३/१ आदि में कला शिक्षण का विस्तृत उल्लेख मिलता है। १. दशवैकालिक- ९/४ २. स्थानांग सूत्र- ५/३
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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