Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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वैदिक एवं बौद्ध संस्कृति के अनुसार शिक्षा के लिए आया हुआ विद्यार्थी सदाचारी और प्रतिभाशाली होना चाहिए । दुष्ट स्वभाव का शिष्य कड़े जूते के समान होता है । जो पहनने वाले का पैर काटता है, दुष्ट शिष्य आचार्य से विद्या या ज्ञान ग्रहण करके उन्हीं की जड़ काटने लग जाता है ।१ अत: सर्वप्रथम शैक्ष-शिक्षार्थी की योग्यता और पात्रता की परीक्षा करना आवश्यक
शिक्षा योग्य आयु की परिपक्वता के बाद शैक्ष का भावात्मक विकास देखना जरूरी है। विनय, संयम, शांति और सरलता—ये चार गुण मुख्य रूप से देखे जाते हैं। स्थानांग सूत्र के अनुसार२ १. विनीत २. विकृति-अप्रतिबद्ध (जिह्वा-संयमी), ३. व्यवशमित प्राभृत (उपशास्त्र प्रकृति) और ४. अमायावी- (सरल हृदय)- चार प्रकार के व्यक्ति, शिक्षा एवं शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के योग्य अधिकारी माने गये हैं। इसके विपरीत, अविनीत आदि को शिक्षा देने का निषेध है। दुष्ट प्रकृति, मूढ़मति, और कलह करने वाले व्यक्ति को शिक्षा देने का सर्वथा निषेध भी मिलता है ।३ ऐसे व्यक्ति को ज्ञान देता हुआ गुरू स्वयं दुखी और संतप्त हो जाता है।
उत्तराध्ययन में बताया है—कृतज्ञ और मेधावी शिष्य को शिक्षा देते हुए आचार्य वैसे ही प्रसन्न होते हैं जैसे अच्छे घोड़े को हांकता हुआ घुड़सवार, किंतु अबोध और अविनीत शिष्य को शिक्षा देता हुआ गुरू वैसे ही खिन्न होता है, जैसे दुष्ट घोड़े को हांकता हुआ उसका वाहक ।' विनीत शिष्य अपने शिक्षक, गुरू की कठोर शिक्षाएं भी यह समझकर ग्रहण करता है कि ये मुझे अपना पुत्र व भाई समझकर कहते हैं, जबकि दुष्ट बुद्धि शिष्य मानता है गुरू तो मुझे अपना दास व सेवक मानते हैं । शिष्य की दृष्टि का यह अन्तर उसके मानसिक विकास व भावात्मक विकास को सूचित करता है।
उत्तराध्ययन में ही शिष्य या विद्यार्थी की पात्रता का विचार करते हुए बताया है—शैक्ष में कम से कम ये आठ गुण तो होने ही चाहिए
१. हास्य न करना-गुरूजनों व सहपाठी विद्यार्थियों का उपहास न करना, व्यंग्य वचन न बोलना, मधुर व शिष्ट भाषा बोलना। १. चुल्लवग्ग-१०-७-२, डा. हरीन्द्रभूषण जैन- प्राचीन भारत में जैन शिक्षा पद्धति २. चत्तारि वायणिज्जा-विणीते, अविगतिपडिबद्धे, विओसितपाहुडे अमाई
स्थानांग- ४/सूत्र ४५३ ३. तओ अवायणिज्जा-दुढे, मूढे, वुग्गहिए-स्थानांग-३ ४. उत्तराध्ययन-१/३७-३९
व्यक्तित्व के समग्र विकास की दिशा में 'जैन शिक्षा प्रणाली की उपयोगिता'
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