Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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दिखाई नहीं देती । अवाय एवं धारणा की निश्चयात्मकता सबको मान्य है, उसमें कोई विवाद नहीं है किन्तु अवग्रह एवं ईहाज्ञान की निश्चयात्मकता के सम्बन्ध में दो मत हैं । प्रथम मत आगमक धारा का अनुसरण करता है जिसके अनुसार अवग्रह ज्ञान निश्चयात्मक नहीं होता । इस मत के प्रतिपादक, उमास्वाति, जिनभद्र, सिद्धसेनगणि, यशोविजय आदि हैं । द्वितीय मत प्रमाणशास्त्रीय धारा से प्रभावित है जिसके अनुसार अवग्रह ज्ञान निश्चयात्मक होता है । इस मत के समर्थक पूज्यपाद देवनन्दी, अकलंक, विद्यानन्दी, वादि देव सूरि आदि दार्शनिक हैं। यहां पर यह ध्यातव्य है कि प्रमाण को निश्चयात्मक ज्ञान मानने पर अभ्यस्त दशा में अवग्रह को प्रमाण भले ही माना जा सकता है किन्तु अनभ्यस्तदशा में उसे प्रमाण मानना उचित नहीं ठहरता है ।
प्रमाण निरूपण में कहीं जैन दार्शनिक आगम सापेक्ष रहे हैं तो कहीं उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल से उसे व्यवहारापेक्षी भी बनाया है । प्रमाण का प्रयोजन ही हेयोपादेयता का ज्ञान करना है, अत: उसका व्यवहारापेक्ष होना आवश्यक रहा । अतः यही कारण है कि जैन दार्शनिकों ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण मानकर भी उसे संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित माना है । आगम परम्परा के अनुसार सम्यग्दर्शन से युक्त ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहा जाता है जबकि व्यवहार में सय विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और उसे ही जैन नैयायिक प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित करते है । इस प्रकार जैन न्याय में प्रमाण का प्रामाण्य सम्यग्दर्शन पर नहीं अपितु संशयादि दोषों की रहितता एवं संवादकता पर निर्भर करता है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क प्रमाणों को प्रतिष्ठित करना तथा हेतु के कारण, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि भेदों का प्रतिपादन भी जैन दार्शनिकों की सांव्यवहारिक दृष्टि को स्पष्ट करता है
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आगमों में प्रतिपादित ज्ञान को प्रमाण मानने के कारण जेनदार्शनिकों के समक्ष एक समस्या परकर आती है । आगमों में ज्ञान प्रकट होने का सम्बन्ध ज्ञानावरण के क्षय या क्षयोपशम स है | ज्ञानावरण का क्षय या क्षयोपशम होने पर ज्ञान प्रकट होता है, अर्थ, आलोक आदि की उपम अपेक्षा नहीं होती । किन्तु प्रमाण के सम्बन्ध में ऐसा स्वीकार करना व्यवहार की नकारना है । पदार्थ एवं प्रकाश भी प्रमाण में व्यावहारिक निमित्त होते हैं। यदि पदार्थ को प्रमाण का निमित्त नहीं मानेंगे तो प्रमाण के द्वारा किसे जाना जा रहा है, यह निश्चित नही हो सकेगा । ज्ञानावरण का क्षय या क्षयोपशम होने पर भी उपलब्ध पदार्थो का ही ज्ञान होगा, अनुपलब्ध पदार्थों का नहीं । ज्ञानावरण के क्षयोपशम से मात्र जानने की योग्यता प्राप्त होती है, उससे वस्त
ज्ञान नहीं हो जाता । वस्तु का ज्ञान करने के लिए वस्तु, आलोक, इन्द्रियादि को निमित्त मानना ही पड़ेगा । अत: अर्थ एवं आलोक की कारणता का जो जैनदार्शनिक आगमापेक्षी होकर खण्ड
प्राकृत-साहित्य में उपलब्ध जैन न्याय के बीज
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