Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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निष्कर्ष यह है कि प्राकृत वाङ्मय का भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के विकार... महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसमें संस्कृति के सन्देशहार सहस्रों ग्रन्थों की रचना हुई है । आज उनके अनुसन्धानमूलक अध्ययन से अनेक लुप्त-सुप्त शब्दों को पुन: प्रचलित करके वाङ्मय को विपुलता प्रदान की जा सकती है। प्राकृत और संस्कृत के सम्मिलन के दो उदाहरण यहां प्रस्तुत हैं
सम्पूर्ण जगदेव नन्दनवनं सर्वेऽपि कल्पद्रुमाः । गाङ्गवारि समस्त वारिनिवहः पुण्या: समस्ता क्रिया: ॥ वाच: प्राकृतसंस्कृता: श्रुतिशिरो वाराणसी मेदिनी। सर्वानस्थितिरस्य वस्तु विषया दृष्टं परब्रह्मणि ॥
आचार्य शंकर, धन्याष्टक, १० अर्थ :- जिस भव्यात्मा ने परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया है, उसके लिए समस्त विश्व आध्यात्मिक नन्दन वन है, सभी वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, समस्त जलाशय गंगाजल से युक्त हैं, उसकी समस्त क्रियाएं पुण्यशील हैं। उसके लिए वाणी, प्राकृत हो अथवा संस्कृत हो, श्रुति सारभूत हैं । उसके लिए समस्त तीर्थक्षेत्र काशी-वाराणसी ही है । उसकी समस्त अवस्थिति एवं वस्तु विषया दृष्टि परमार्थमयी है। सरस्वती प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं की ज्ञाता हैं
द्विधा प्रयुक्तेन च वाङ्गमयेन, सरस्वती तन्मिथुनं नुनाव। संस्कारपूर्तन वरं वरेण्यं, वधू सुख-ग्राह्य निबंधनेन ॥
मलाकवि कालिदास रचित कुमार संभवम् ७/९० अर्थ-सरस्वती ने (शिव व पार्वती) मिथुन की दो प्रकार के वाड्मय द्वारा स्तुति की। देवी सरस्वती ने श्रेष्ठ वर की संस्कार से पवित्र संस्कृत भाषा में और वधू की सरलता से समझ में आने वाली प्राकृत-भाषा में स्तुति निबद्ध की या प्रस्तुत की। ___इस प्रकार बहुत प्राचीनकाल से ही प्राकृत और संस्कृत के सम्मिलन के प्रमाण साहित्य में विद्यमान हैं।
भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय में प्राकृत का योगदान
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