Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
View full book text
________________
प्रमाणनिर्णय, परीक्षामुख, प्रमेयकमल-मार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमाणनयतत्त्वालोक, स्याद्वादरत्नाकर, प्रमाण-मीमांसा, जैन तर्क भाषा आदि प्रमुख हैं किन्तु ये सभी संस्कृत भाषा में निर्मित हैं। प्राकृत भाषा में आज तक एक भी प्रमाण-विषयक कृति का निर्माण नहीं हुआ। इसका कारण जैनेत्तर दार्शनिकों के साथ वाद में सम्मिलित होना रहा है। विद्वानों एवं दार्शनिकों के पारस्परिक विचार विनिमय की भाषा उस समय संस्कृत थी। उसी में विचारों का आदान प्रदान होता था । इसीलिए बौद्धों ने भी पालिभाषा के स्थान पर संस्कृत-भाषा में दार्शनिक ग्रन्थों की रचना प्रारम्भ कर दी थी।
विचारणीय विषय यह है कि क्या संस्कृत-भाषा में रचित न्यायग्रंथों में निरूपित प्रमाणमीमांसा के बीज प्राकृत साहित्य में उपलब्ध है? इस प्रश्न का उत्तर निस्संदेह हां में जाता है। जैन-न्याय का समस्त प्रासाद आगम एवं आगमेतर प्राकृत-साहित्य की भित्ति पर खड़ा है। आगमों में प्राप्त ज्ञान का वर्णन ही जैन न्याय के प्रतिपादन का प्रमुख आधार बना है।
जैन न्याय में प्रमाण की ज्ञानात्मक, व्यवसायात्मक एवं स्वपर प्रकाशक माना गया है । स्व एवं पर (पदार्थ) के व्यवसायात्मक ज्ञान को जैन तार्किकों ने प्रमाण संज्ञा दी है। कुछ जैन दार्शनिकों ने सम्यग्ज्ञान एवं तत्त्वज्ञान को भी प्रमाण कहा है। नैयायिकों को अभीष्ट इन्द्रिय एवं इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष, सांख्यसम्मत इन्द्रियवृत्ति, मीमांसकाभिमतज्ञातृव्यापार एवं बौद्धाभिमत निर्विकल्पक ज्ञान जैन दार्शनिकों को प्रमाण के रूप में स्वीकार्य नहीं है। जैन-दार्शनिक निर्विकल्पक दर्शन को प्रमाण नहीं मानते किन्तु सविकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं । ज्ञान सविकल्पक ही होता है और दर्शन निर्विकल्पक । इस प्रकार ज्ञान ही जैन दर्शन में प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है।
इस दृष्टि से विचार करने पर नन्दीसूत्र, षट्खण्डागम, भगवतीसूत्र, स्थानांगसूत्र आदि प्राकृत आगमों को जैन प्रमाण-मीमांसा का प्रमुख आधार माना जा सकता है क्योंकि इनमें पांच ज्ञानों का निरूपण है। आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मन: पर्याय और केवल, ये पांच ज्ञान जैन आगमों में प्रसिद्ध हैं । इनकी प्रसिद्धि भगवान् महावीर से पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय में भी थी, ऐसा राजप्रश्नीय सूत्र से ज्ञात होता है। ये पांच ज्ञान ही प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो प्रमरणों के रूप में विभक्त हुए हैं। आचार्य उमास्वाति ने मति एवं श्रुत ज्ञानों को परोक्ष प्रमाण में तथा अवधि, मन: पर्याय एवं केवलज्ञान को प्रत्यक्ष, प्रमाण में समाविष्ट किया है। इसका आधार नन्दीसूत्र एवं स्थानांग सूत्र में मिलता है। वहां पर ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भेदों में विभक्त किया गया है। वहां प्रमाण के ये विभाजन नहीं हैं । नन्दीसूत्र में प्रत्यक्ष ज्ञान को पुन:
१२६
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org