Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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प्राकृत-साहित्य में उपलब्ध जैन न्याय के बीज
- डॉ. धर्म चन्द जैन जैन दार्शनिकों द्वारा किया गया प्रमाण-विषयक चिन्तन जैन-न्याय के नाम से जाना जाता है। जैन प्रमाण-मीमांसा का अपर नाम ही जैन-न्याय है। विकास-क्रम की दृष्टि से जैन प्रमाण-मीमांसा को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है—१. आगमवर्ती प्रमाण-निरूपण २. अनेकान्त-साहित्ययुगीन प्रमाण-निरूपण और ३. भट्ट अकलंक एवं तदुत्तरवर्ती प्रमाण-निरूपण । आगमों में उपलब्ध प्रमाण-विषयक समस्त निरूपण प्राकृत भाषा में है। अनेकान्त साहित्य युगीन प्रमाण मीमांसीय चिन्तन प्राकृत एवं संस्कृत दोनों भाषाओं में उपलब्ध है । अकलंक एवं उनके पश्चात् प्रमाण पर जो कुछ लिखा गया वह प्राय: सब संस्कृत भाषा में है। गणधरों द्वारा ग्रथित होने के कारण आगमों का रचना-काल निर्धारित करना अनुपयुक्त है। अनेक साहित्ययुगीन समय को द्वितीय शती से सप्तमशती तक रखा जाता है। अकलंक का समय पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के अनुसार ७२० ई. से ७८० ई. है । जैन दर्शन में भट्ट अकलंक ने जैन न्याय को बृहद् स्तर पर व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया है। उनके अनन्तर आचार्य यशोविजय तक सत्रहवीं शती में भी उसका विकास होता रहा है।
जैनन्याय पर आद्य स्वतंत्र कृति सिद्धसेन का न्यायावतार है। इसमें ३२ कारिकाओं में जैन-न्याय का संक्षेप में सुन्दर निरूपण हुआ है। सिद्धसेन अनेकान्तस्थापन युग के आचार्य थे। उन्होंने प्राकृत भाषा में ‘सन्मति-तर्क' की रचना की जो अनेकान्तवाद के स्थापन के साथ ज्ञानमीमांसा का भी निरुपण करती है । सन्मतितर्क में सीधा प्रमाण-विवेचन नहीं है किन्तु उसमें निहित ज्ञान का विवेचन प्रमाण-विवेचन का आधार बना है, इसीलिए अभयदेवसूरि (१०वीं १२४
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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