Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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पुन: यदि हम बोटिक निह्नव सम्बन्धी गाथाओं को भी नियुक्ति गाथाएं मान भी लें तो भी नियुक्ति के रचनाकाल की अपर सीमा को वीरनिर्वाण संवत् ६१० अर्थात् विक्रम की तीसरी शती के पूर्वार्ध से आगे नहीं ले जाया जा सकता है क्योंकि इसके बाद के कोई उल्लेख हमें नियुक्तियों में नहीं मिले । यदि नियुक्ति नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठी सदी उत्तरार्द्ध) की रचनाएं होती तो उनमें विक्रम की तीसरी सदी से लेकर छठी सदी के बीच के किसी न किसी आचार्य एवं घटना का उल्लेख भी, चाहे संकेत रूप में ही क्यों न हो, अवश्य होता । अन्य कुछ नहीं तो माथुरी एवं वलभी वाचना के उल्लेख तो अवश्य ही होते, क्योंकि नैमित्तिक भद्रबाहु तो उनके बाद ही हुए हैं। वलभी वाचना के आयोजक देवर्द्धिगणि के तो वे कनिष्ठ समकालिक है, अत: यदि वे नियुक्ति के कर्ता होते तो वलभी वाचना का उल्लेख नियुक्तियों में अवश्य करते ।
३. यदि नियुक्तियां नैमित्तिक भद्रबाहु (छठवीं सदी- उत्तरार्द्ध) की कृति होती तो उसमें गुणस्थान की अवधारणा अवश्य ही पाई जाती। छठीं सदी के उत्तरार्द्ध में गुणस्थान की अवधारणा विकसित हो गई थी और उस काल में लिखी गई कृतियों में प्राय: गुणस्थान का उल्लेख मिलता है किन्तु जहां तक मुझे ज्ञात है, नियुक्तियों में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का कहीं भी उल्लेख नहीं है । आवश्यकनियुक्ति की जिन दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है, वे मूलत: नियुक्ति गाथाएं नहीं हैं। आवश्यक मूल पाठ में चौदह भूतग्रामों (जीव-जातियों) का ही उल्लेख है, गुणस्थानों का नहीं । अत: नियुक्ति तो भूतग्रामों की ही लिखी गयी । भूतग्रामों के विवरण के बाद दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नाम दिये गये हैं । यद्यपि यहां गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं है। ये दोनों गाथाएं प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि हरिभद्र (आठवीं सदी) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में 'अधुनामुमैव गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार' कहकर इन दोनों गाथों को संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया है।६८ अत: गुणस्थान सिद्धान्त के स्थिर होने के पश्चात् संग्रहणी की ये गाथाएं नियुक्ति में डाल दी गई हैं। नियुक्तियों में गुणस्थान की अवधारणा की अनुपस्थिति इस तथ्य का प्रमाण है कि उनकी रचना तीसरी-चौथी शती के पूर्व हुई थी। इसका तात्पर्य यह है कि नियुक्तियां नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना नहीं है।
४. साथ ही हम देखते हैं कि आचारांगनियुक्ति में आध्यात्मिक विकास की उन्हीं दस अवस्थाओं का विवेचन है६९ जो हमें तत्त्वार्थसूत्र में भी मिलती है और जिनसे आगे चलकर गुणस्थान की अवधारणा विकसित हुई है। तत्त्वार्थसूत्र तथा आचारांगनियुक्ति दोनों ही विकसित गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में सर्वथा मौन हैं, जिससे यह फलित होता है कि
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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