Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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- तस्वार्थचिन्तामाणिः
संयोग सम्बन्ध है । वैशेषिकके मतमें चक्षुइन्द्रिय तेजो द्रव्य है । स्पर्शन इन्द्रिय वायुकी बनी हुयी वायु द्रव्य है । रसना इन्द्रिय जलीय है। पृथ्वी द्रव्यका विकार घ्राण इन्द्रिय है। कानके भी भीतर छेदमें रहनेवाला आकाशद्रव्य श्रोत्र इन्द्रिय है । द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ संयोग सम्बन्ध माना गया है। वह आकाश और नेत्रका तथा स्पर्शन इन्द्रिय और आत्माका है ही, फिर आकाशका चाक्षुष प्रत्यक्ष और आत्माका स्पर्शन प्रत्यक्ष या दोनोंके दोनों प्रत्यक्ष क्यों न होजाय ? किन्तु वह संयोग तो उन आकाश आदिके ज्ञानका कारण नहीं माना गया है । यह अन्वयव्यभिचार हुआ ।
संयुक्तसमवायश्च शद्वेन सह चक्षुषः। शद्वज्ञानमकुर्वाणो रूपचिच्चक्षुरेव किम् ॥२५॥ संयुक्तसमवेतार्थसमवायोप्यभावयन् । शद्वत्वस्य न नेत्रेण बुद्धिं रूपत्ववित्करः ॥२६॥
तथा जिस प्रकार घटसे चक्षु संयुक्त हो रही है, और घटमें रूपका समवाय है, अतः चक्षु इन्द्रियका रूपके साथ संयुक्तसमवाय नामका परम्परा-सम्बन्ध सन्निकर्ष प्रमाण होता हुआ, रूपज्ञानका करण है, उसी प्रकार चक्षुका शद्बके साथ भी संयुक्तसमवाय सम्बन्ध है । चक्षुसे संयुक्त आकाश है । और वैशेषिकोंने आकाशमें शद्वका समवाय सम्बन्ध माना है। किन्तु वह संयुक्तसमवाय जब शद्बके चाक्षुष ज्ञानको नहीं कर रहा है, तो संयुक्तसमवाय द्वारा चक्षु इन्द्रिय भला रूप ज्ञान क्यों करावे ? इसी प्रकार चक्षुका रूपत्व जातिके साथ संयुक्तसमवेतसमवाय है। वैशेषिकोंने जिस इन्द्रियसे जो जाना जाता है, उसमें रहनेवाला सामान्य भी उसी इन्द्रियसे जाना जाता माना है । चक्षुसे संयुक्त घट है, घटमें समवाय सम्बन्धसे रूप वर्त्त रहा है
और रूपमें रूपत्व जातिका समवाय है । अतः चक्षुका रूपत्वके साथ संयुक्तसमवेतसमवाय सन्निकर्ष है। उसीके समान शब्दत्वके साथ भी यही सन्निकर्ष है । चक्षुसे संयुक्त आकाश है। आकाशमें समवेत शब्द है । और शब्दगुणमें शद्वत्व जातिका समवाय है । फिर नेत्र करके रूपत्वकी वित्तिके समान शद्वत्वकी बुद्धिको वह सन्निकर्ष क्यों नहीं कराता है ? बताओ । कारणके होते हुये भी कार्य नहीं हुआ, यह अन्वयव्यभिचार है।
श्रोत्रस्यायेन शद्धेन समवायश्च तद्विदम् । अकुर्वचन्त्यशद्वस्य ज्ञानं कुर्यात्कथं तु वः ॥ २p4 तस्यैवादिमशद्वेषु शद्वत्वेन समं भवेत् । समवेतसमवायं सद्विज्ञानमनादिवत् ॥ २८ ॥