Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थलोकवार्तिके
कारण जिस ही प्रकार एक समूहालम्बन ज्ञान या चित्रज्ञानके अनेक स्वरूप होना अविरुद्ध है। क्योंकि बाधारहित प्रतीति करके वे अनेक स्वभाव एकमें आरूढ हो रहे जाने जाते हैं, तिस ही प्रकार एक आत्माके भी वह अनेकरूपपना अविरुद्ध है, कोई अन्तर नहीं है, जैसे विभुक्षा या पिपासा तथा रिक्तकोष्ठता आदि परिणतिके होनेपर ही देवदत्त खाता, पीता है । अजीर्ण या महारोग अथवा परितृप्त अवस्थामें वैसी शारिरिक परिणतिके हुए विना नहीं खाता पीता है । उसी प्रकार अर्थग्रहण योग्यतारूप परिणामसे विवर्त्त करता हुआ आत्मा संनिकर्ष इस संज्ञाको प्राप्त कर रहा हुआ निर्बाध प्रतीतिमें आरूढ नहीं हो रहा है । यह नहीं समझना जिससे कि वह विलक्षण संनिकर्ष रूप आत्मा कथंचित् प्रमाण न हो जाय, यानी संनिकर्ष प्रमाणरूप आत्मा है । तथा यह आत्मा क्रियात्मक व्यापाररूप अवस्थासे रहित होकर अन्य अर्थग्रहणरूप व्यापारमें निमग्न हुआ स्व और अर्थकी ज्ञप्ति स्वरूप नहीं दीख रहा है, यह भी नहीं समझना जिससे कि वह आत्मा कथंचित् प्रमिति रूप न हो सके । अर्थात्-णात्मा ही विशेष अवस्था में प्रमितिरूप है । एवं यह आत्मा प्रमिति और प्रमाणसे कथंचित् भिन्न हो रहा स्वतंत्र नहीं जगमगा रहा है । यह भी नहीं समझना, जिससे कि प्रमाता न हो सके । भावार्थ-" स्वतंत्रः कर्ता " स्वतंत्र आत्मा प्रमाता भी है।
संयोगादि पुनर्येन सन्निकर्षोऽभिधीयते । तत्साधकतमत्वस्याभावात्तस्याप्रमाणता ॥ २२ ॥ सतींद्रियार्थयोस्तावत्संयोगे नोपजायते । स्वार्थप्रमितिरेक तव्यभिचारस्य दर्शनात् ॥ २३॥ क्षितिद्रव्येण संयोगो नयनादेर्यथैव हि ।
तस्य व्योमादिनाप्यस्ति न च तज्ज्ञानकारणम् ॥ २४ ॥
जैसे वैशेषिकने (१) संयोग (२) संयुक्तसमवाय (३) संयुक्तसमवेतसमवाय ( ४ ) समवाय (५) समवेतसमवाय (६) विशेषणविशेष्यमाव ये छह लौकिक संनिकर्ष कहे हैं तथा (१) सामान्य लक्षण (२) ज्ञान लक्षण ( ३ ) योगज लक्षण नामक तीन अलौकिक संनिकर्षाका कथन किया है । उन संनिकको उस प्रमाका साधकतमपना न होने कारण प्रमाणपना नहीं है। अन्वयव्यभिचार देखा जाता है । कारणके होने पर कार्यका होना अन्वय है। किन्तु इन्द्रिय और अर्थका संयोग होते हुये भी स्व और अर्थकी प्रमा नहीं उत्पन्न हो रही है। एकान्त रूपसे व्यभिचार देखा जाता है । देखिये घट, पट आदि पृथ्वी द्रव्यके साथ चक्षु, स्पर्शन, आदि इन्द्रियोंका जैसा ही संयोग है, वैसा ही उन चक्षु आदिकोंका आकाश, आत्मा, आदिकके साथ भी