Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ लोकवार्तिक
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प्रमाणफलसम्बन्धी प्रमातैतेन दूषितः । संयुक्तसमवायस्य सिद्धेः प्रमितिकाययोः ॥ १६ ॥
इस उक्त कथनसे प्रमाण और फल दोनोंका सम्बन्धी आत्मा प्रमाता है। यह भी दूषित पक्ष कह दिया गया समझ लेना। क्योंकि प्रमिति और कायका भी संयुक्त-समवायसम्बन्ध सिद्ध हो रहा है । द्रव्य और दूसरे द्रव्यका संयोग सम्बन्ध वैशेषिकोंने माना है। काय द्रव्यका आत्मद्रव्यके साथ संयोग है । और कायसंयुक्त आत्मामें प्रमितिका समवाय है। अतः प्रमितिका सम्बन्ध माननेपर भी शरीरके प्रमाता बन जानेका निवारण वैशेषिक नहीं कर सकते हैं।
ज्ञानात्मकप्रमाणेन प्रमित्या चात्मनः परः। समवायो न युज्येत तादात्म्यपरिणामतः ॥ १७ ॥ ततो नात्यंतिको भेदः प्रमातुः स्वप्रमाणतः । स्वार्थनिर्णीतरूपायाः प्रमितेश्च फलात्मनः ॥ १८ ॥ तथा च युक्तिमत्त्रोक्तं प्रमाणं भावसाधनम् । सतोपि शक्तिभेदस्य पर्यायार्थादनाश्रयात् ॥ १९ ॥
ज्ञानस्वरूप प्रमाण और प्रमितिके साथ आत्माका तादात्म्य परिणामरूप सम्बन्धसे न्यारा कोई समवायसम्बन्ध युक्त नहीं है । अर्थात्-अपने शरीर या अन्य आत्माओंके प्रमाता बननेका निवारण तभी हो सकता है, जब कि आत्माका ज्ञान और ज्ञप्तिके साथ तादात्म्य माना जाय । तदात्मक परिणतिके अतिरिक्त कोई समवाय संबंध सिद्ध नहीं है । तिस कारण प्रमाताका अपने प्रमाणसे सर्वथा भेद नहीं है। तथा अपनी और अर्थका निर्णय करनारूप फलस्वरूप प्रमितिका भी प्रमाताके साथ अत्यन्तरूपसे होनेवाला भेद नहीं है । और तैसा होनेपर हमने पहिले वार्तिकोंमें भावद्वारा साधे गये प्रमाणको युक्तिसहित बहुत अच्छा कह दिया है। विद्यमान भी हो रही मिन भिन्न शक्तियोंका पर्यायार्थिक नयसे नहीं आश्रय करनेके कारण शुद्धप्रमिति ही प्रमाण हो जाती है। इस प्रकार विवक्षाके वश प्रमाण, प्रमाता, प्रमिति, और प्रमेय सब एकम एक हो रहे हैं । जैसे कि सद्गृहस्थके कुटुम्बमें आपेक्षिक प्रधानताको रखते हुये सब कुटुम्बीजन परस्पर मिल रहे हैं। .
सर्वथा प्रमातुः प्रमितिप्रमाणाभ्यामभेदादेवं तद्विभागः कल्पितः स्यात्र पुनर्वास्तव इति न मंतव्यं, कथंचि दोपगमात् । सर्वथा तस्य ताभ्यां भेदादुपचरितं प्रमातुः प्रमिति प्रमाणत्वं न तात्त्विकमित्यपि न मंतव्यं कयंचित्तदभेदस्यापीष्टः । तथाहि