Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
उमास्वामी महाराजका वचन है । अर्थोका विकल्पसहित ग्रहण करना-रूप ज्ञान उपयोगको प्रमाणपना सिद्ध है।
अर्थग्रहणयोग्यत्वमात्मनश्चेतनात्मकम् । सनिकर्षः प्रमाणं नः कथंचिकेन वार्यते ॥ १२ ॥ तथा परिणतो ह्यात्मा प्रमिणोति स्वयं प्रभुः। यदा तदापि युज्येत प्रमाणं कर्तृसाधनम् ॥ १३ ॥
आत्माकी चेतनस्वरूप अर्थग्रहण योग्यता यदि सन्निकर्ष है तो यह सन्निकर्ष हम जैनोंके यहां प्रमाण है, इस सन्निकर्षका किसी भी ढंगसे किसीके द्वारा निवारण नहीं किया जासकता है। तब इस प्रकार अर्थको ग्रहण करनेकी योग्यतारूप परिणतिसे परिणमन करता हुआ आत्मा स्वयं स्वतंत्र समर्थ होकर भले प्रकार जान रहा है, तब भी कामें अनट् प्रत्यय कर साधा गया प्रमाण चेतनस्वरूप हो पडता है, सन्निकर्षका सिद्धान्त लक्षण योग्यता ठीक पडेगा, संयोग आदिकमें अनेक दोष आते हैं। ____सन्निकर्षः प्रमाणमित्येतदपि न स्याद्वादिना वार्यते कथंचित्तस्य प्रमाणत्वोपगमे विरोधाभावात् । पुंसोऽर्थग्रहणयोग्यत्वं सन्निकर्षो न पुनः संयोगादिरिष्टः। न ह्यर्थग्रहणयोग्यतापरिणतस्यात्मनः प्रमाणत्वे कश्चिद्विरोधः कर्तृसाधनस्य प्रमाणस्य तथैव च घटनात् । प्रमात्रात्मकं च स एव प्रमाणमिति चेत्, प्रमातृप्रमाणयोः कथंचित्तादात्म्यात् ।
सन्निकर्ष प्रत्यक्ष प्रमाण है यह मत भी स्याद्वादी करके नहीं निवारा जाता है । किसी अपेक्षा उस सन्निकर्षको प्रमागपन स्वीकार करनेमें हमें विरोध नहीं आता है । आत्माकी अर्थीको ग्रहण करनेकी योग्यता ही तो सन्निकर्ष है, फिर कोई वैशेषिकों द्वारा माने गये संयोग, संयुक्त समवाय, आदिक तो अभीष्ट संनिकर्ष नहीं हैं । जिस समय आत्मा अर्थके ग्रहण करनेकी योग्यतारूप परिणाम कर रहा है, ऐसे आत्माको प्रमाणपन हो जानेमें कोई विरोध नहीं है। कर्ता साधे गये प्रमाण शब्दकी तिस प्रकार आत्माके ही वाच्य होनेपर अच्छी घटना होती है । प्रमाण, प्रमिति, प्रमाता,
और प्रमेय ये स्वतंत्र एक दूसरेसे न्यारे चार तत्व हैं, इस बातको स्याद्वादी स्वीकार नहीं करते हैं। जैसे कि पृथ्वी, अप, तेज, वायु ये स्वतंत्र चार तत्त्व नहीं हैं। क्योंकि परस्परपमें संकरपनेसे परिणाम होना या उपादान उपादेयपना देखा जाता है । जैसे वायु पानी ( मेघ जल ) बन जाती है, पानी फल पुष्प काठरूप हो जाता है, काठ अग्नि बन जाता है, अग्नि फिर भस्मरूप पृथ्वी बन जाती है, इसी प्रकार प्रमाता भी प्रमेय और प्रमाण बन जाता है। प्रमाण भी प्रमेय हो जाता है। प्रमिति भी प्रमेय बन जाती है। आत्माके विमिन्न परिणामों के अनुसार यह व्यवस्था हो रही है।