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श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना वा द्रव्यमिति । भावषोडशकमिदमेवाध्ययनषोडशकं क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वादिति । श्रुतस्कन्धयोः प्रत्येकं चतुर्विधो निक्षेपः स चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादित इति नेह प्रतन्यते।।२३।।नि०॥
सूत्रकृताङ्गसूत्र का निक्षेप बताने के पश्चात् अब प्रथम श्रुतस्कन्ध का नामनिक्षेप बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं
सूत्रकृताङ्गसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम 'गाथाषोडशक' है । जिसमें गाथानामक सोलह अध्ययन हैं, उसे 'गाथाषोडशक' कहते हैं । नाम स्थापना, द्रव्य और भाव भेद से गाथा का निक्षेप चार प्रकार का होता है । इन में नाम और स्थापना प्रसिद्ध हैं । द्रव्य गाथा दो प्रकार की होती है- आगम से और नोआगम से । जो पुरुष, गाथा जानता हुआ भी उसमें उपयोग नहीं रखता है, वह आगम से द्रव्यगाथा है क्योंकि उपयोग न रखना ही द्रव्य है । नोआगम से द्रव्यगाथा तीन प्रकार की होती है- (१) ज्ञशरीर द्रव्यगाथा, (२) भव्यशरीर द्रव्यगाथा, (३) और इन दोनों से भिन्न द्रव्यगाथा । (सत्तट्ठतरू) जिस छन्द में चार मात्रावाले सात गण हों, आठवाँ गुरु हो और विषम में जगण न हों, छट्ठा चतुर्लघु न हो अथवा जगण हो वह गाथा छन्द है । परन्तु यह गाथा के पूर्वार्ध का वर्णन है उत्तरार्ध में छट्ठा एक लघु होना चाहिए, शेष पूर्वार्धवत् जानना चाहिए । इस लक्षण से युक्त जो छन्द, पन्ने और पुस्तकों पर लिखा हुआ है, वह गाथा छन्द है । भावगाथा भी आगम और नोआगम भेद से दो प्रकार की होती है। गाथा को जाननेवाला जो पुरुष, उस गाथा में उपयोग रखता है, वह आगम से भावगाथा है । नोआगम से, यह गाथा नामक अध्ययन ही भावगाथा है क्योंकि यह आगम का एक भाग है । षोडशक का भी नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भेद से छः निक्षेप होते हैं । इनमें नाम और स्थापना सुगम हैं, अतः उन्हें छोड़कर द्रव्यषोडशक बताया जाता है । ज्ञशरीर और भव्यशरीर से भिन्न सचित्त आदि सोलह द्रव्य, 'द्रव्यषोडशक' हैं । सोलह आकाशप्रदेश, क्षेत्र-षोडशक हैं । सोलह समय अथवा सोलह समय तक रहनेवाला द्रव्य, कालषोडशक है । भावषोडशक, यह अध्ययन ही है क्योंकि यह क्षायोपशमिकभाव में वर्तमान है । श्रुत और स्कन्ध का निक्षेप भी प्रत्येक चार प्रकार का है, वह दूसरे स्थल में विस्तार के साथ कहा गया है, इसलिए वह यहाँ नहीं कहा गया ॥२३॥नि०॥
साम्प्रतमध्ययनानां प्रत्येकमर्थाधिकारं दिदर्शयिषयाऽऽहससमयपरसमयपरूयणा य णाऊण बुज्झणा चेय । संबुद्धस्सुवसग्गा, थीदोसवियज्जणा चेव ॥२४॥ नि० उवसग्गभीरुणो थीयसस्स णरएसु होज्ज उववाओ । एव महप्पा वीरो जयमाह तहा जएज्जाह ॥२५॥ नि० परिचतनिसीलकुसीलसुसीलसविग्गसीलवं चेव । णाऊण यीरियदुगं पंडिययीरिए पयट्टेइ (पयट्टिज्जा) ॥२६॥ नि० धम्मो समाहि मग्गो समोसढा चउसु सव्ययादीसु । सीसगुणदोसकहणा, गंथंमि सदा गुरुनियासो ॥२७॥ नि० आदाणिय संकलिया आदाणीयंमि आययचरितं । अप्पगंथे पिंडियवयणेणं होई अहिगारो ॥२८॥ नि०
तत्र प्रथमाध्ययने स्वसमयपरसमयप्ररूपणा, द्वितीये स्वसमयगुणान् परसमयदोषांश्च ज्ञात्वा स्वसमय एव बोधो विधेय इति । तृतीयाध्ययने तु संबुद्धः सन् यथोपसर्गसहिष्णुर्भवति तदभिधीयते । चतुर्थे स्त्रीदोषविवर्जना, पञ्चमे त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा- उपसर्गासहिष्णोः, 'स्त्रीवशवर्तिनोऽवश्यं नरकेषूपपात इति । षष्ठे पुनः, “एवमिति' अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहनेन स्त्रीदोषवर्जनेन च भगवान् महावीरो जेतव्यस्य कर्मणः संसारस्य वा पराभवेन जयमाह ततस्तथैव यत्नं विधत्त यूयमिति शिष्याणामुपदेशो दीयते । सप्तमे त्विदमभिहितं, तद्यथा- निःशीला गृहस्थाः कशीलास्त्वन्यतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयो वा ते परित्यक्ताः येन साधना स परित्यक्तनिःशीलकशील इति. तथा सशीला उद्युक्तविहारिणः संविग्नाः- संवेगमनास्तत्सेवाशीलः शीलवान् भवतीति । अष्टमे त्वेतत्प्रतिपाद्यते, तद्यथा- ज्ञात्वा वीर्य्यद्वयं पण्डितवीर्ये प्रयत्नो विधीयत इति । नवमे त्वर्थाधिकारस्त्वयं, तद्यथा- यथाऽवस्थितो धर्मः कथ्यते, दशमे 1. स्त्रीवशगस्य । 26