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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा २४ अडईसु महिलियासु य वीसम्भो नेव कायव्वी ||१|| 1 उब्भेउ अंगुली सो पुरिसो सयलंमि जीवलोयंमि । कामंतरण नारी जेण न पत्ताइं दुक्खाई ॥२॥ 2 अ याणं पई सव्वस्स करेंति वेमणरसाई । तस्स ण करेंति णवरं जस्स अलं चैव कामेहिं ||३||
किञ्च - अकार्यमहं न करिष्यामीत्येवमुक्त्वापि वाचा 'अदुव'त्ति तथापि कर्मणा विरूपमाचरन्ति, यदिवा अग्रतः प्रतिपाद्यापि च शास्तुरेवापकुर्वन्तीति ॥ २३॥
क्रियया 'अपकुर्वन्ति' इति
कि
टीकार्थ दूसरी बात यह है पहले जो कहा गया है, यह सब मैंने गुरु आदि से सुन रखा है, तथा लोक से भी सुना है । जैसे कि स्त्रियों का चित्त दुर्विज्ञेय होता है तथा इनके साथ सम्बन्ध करने का फल भी बुरा होता है, स्त्रियां चंचल स्वभाव की होती हैं, इनकी सेवा कठिन होती है, तथा स्त्रियां अदूरदर्शिनी और तुच्छ स्वभाव की होती हैं, इनमें आत्मगर्व बहुत ज्यादा होता है, इस प्रकार कोई कहते हैं तथा लौकिक श्रुतिपरंपरा से भी यह सुना जाता है और पुरानी आख्यायिकाओं से भी यही ज्ञात होता है । स्त्रियों का स्वभाव और उनके संसर्ग का फल बतानेवाला वैशिक कामशास्त्र को 'स्त्रीवेद' कहते हैं, यह शास्त्र स्त्रियों के स्वभाव को प्रकट करता यह शास्त्र कहता है कि
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जैसे दर्पण में पड़ी हुई मुख की छाया दुर्ग्राह्य होती है, इसी तरह स्त्रियों का हृदय ग्रहण नहीं किया जा सकता । स्त्रियों का अभिप्राय पर्वत के दुर्ग मार्ग के समान गहन होने के कारण जाना नहीं जाता है, उनका चित्त कमल के पत्ते पर रखे हुए जल बिन्दु के समान अति चंचल होता है, इसलिए वह एक स्थान पर नहीं ठहरता है जैसे विष के अंकुर से विषलता उत्पन्न होती हैं, उसी तरह स्त्रियां दोषों के साथ उत्पन्न हुई हैं | ॥१॥ अच्छी तरह विजय की हुई तथा अत्यन्त प्रसन्न की हुई एवं अत्यन्त परिचय की हुई भी अटवी और स्त्री में विश्वास नहीं करना चाहिए |१|
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम्
इस समस्त जीव लोक में क्या कोई पुरुष अंगुलि ऊठा के यह कह सकता है? कि जिसने स्त्री की कामना करके दुःख न पाया हो । २ ।
स्त्रियों का स्वभाव है कि वे सबका तिरस्कार करती हैं, केवल उसका तिरस्कार नहीं करती, जिसको स्त्री की कामना नहीं है |३|
स्त्रियां अब हम ऐसा नहीं करेंगी, यह वचनद्वारा कहकर भी कर्म से विपरीत आचरण करती हैं अथवा सामने स्वीकार करके भी शिक्षा देने वाले का ही अपकार करती हैं ||२३||
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सूत्रकार एव तत्स्वभावाविष्करणायाह
अब सूत्रकार ही स्त्रियों का स्वभाव प्रकट करने के लिए कहते हैं अन्नं मणेण चिंतेति, वाया अन्नं च कम्मुणा अन्नं । तम्हाण सद्दह भिक्खू, बहुमायाओ इत्थिओ णच्चा
छाया -
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॥२४॥
अव्यन्मनसा चिन्तयन्ति वाचा अव्यच्च कर्मणाऽन्यत् । तस्मान्न श्रद्दधीत भिक्षुः बहुमायाः स्त्रियोः ज्ञात्वा ॥
अन्वयार्थ – (मणेण अन्नं चिंतेति ) स्त्रियां मन से दूसरा सोचती है (वाया अन्नं) वाणी से ओर कहती हैं ( कम्मुणा अन्नं) और कर्म से
1. ऊर्ध्वयतु अङ्गुलिं स पुरुषः सकले जीवलोके, कामतया नारीर्येन न प्राप्तानि दुःखानि ||२|| 2. असावेतासां प्रकृतिस्सर्वेषामपि कुर्वन्ति वैमनस्यानि, तस्य न कुर्वन्ति नवरं यस्यालं चैव कामैः ||३||