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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा २६
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम्
टीकार्थ- कोई नवयौवना स्त्री विचित्र वस्त्र और अलंकारों से अपने शरीर को भूषित करके माया से साधु के प्रति कहे कि हे साधो ! मैं गृहपाश से विरक्त हूं, मेरा पति मेरे अनुकूल नहीं है अथवा वह मुझ को पसन्द नहीं है अथवा उसने मुझ को छोड़ रखा है अतः मैं संयम पालन करूंगी। कहीं कहीं 'मौनं' यह पाठ मिलता है, इसका अर्थ यह है मुनि के भाव को मौन कहते हैं, वह संयम है, उसे मैं पालूंगी, इसलिए हे भय से रक्षा करनेवाले साधो ! तुम मुझको धर्म सुनाओ जिससे मैं इस दुःख का पात्र न बनूं ||२५||
अदु सावियापवाएणं, अहमंसि साहम्मिणी य समणाणं । जतुकुंभे जहा उवज्जोई संवासे विदू विसीएज्जा
छाया - अथ श्राविकाप्रवादेन, अहमस्मि साधर्मिणी श्रमणानाम् । जतुकुम्भोः यथा उपज्योति, संवासे विद्वान् विषीदेत ॥
अन्वयार्थ - ( अदु) इसके पश्चात् (सावियापवाएणं) श्राविका होने के बहाने से स्त्री साधु के निकट आती है ( अहमंसि साहम्मिणी समणाणं) मैं श्रमणों की साधर्मिणी हूं, यह कहकर भी साधु के पास आती है। (जहा उवज्जोई जतुकुंभे) जैसे अग्नि के निकट लाख का घड़ा गल जाता है, इसी तरह (विदू संवासे विसीएज्जा) विद्वान् पुरुष भी स्त्री के संसर्ग से शीतलविहारी हो जाते हैं ।
भावार्थ - स्त्री श्राविका होने का बहाना बनाकर तथा मैं साधु की साधर्मिणी हूं, यह कहकर साधु के निकट आती है । जैसे आग के पास लाख का घड़ा गल जाता है, इसी तरह स्त्री के साथ रहने से विद्वान् पुरुष भी शिथिलविहारी हो जाते हैं ।
टीका
अथवानेन “प्रवादेन" व्याजेन साध्वन्तिकं योषिदुपसर्पेत् - यथाऽहं श्राविकेतिकृत्वा युष्माकं श्रमणानां साधर्मिणीत्येवं प्रपञ्चेन नेदीयसीभूत्वा कूलवालुकमिव साधुं धर्माद्शयति, एतदुक्तं भवति ब्रह्मचारिणां महतेऽनर्थाय तथा चोक्तम् -
योषित्सान्निध्यं
।।२६॥
तज्ज्ञानं तच्च विज्ञानं तत्तपः स च संयमः । सर्वमेकपदे भ्रष्टं, सर्वथा किमपि स्त्रियः ||१|| अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तमाह यथा जातुष: कुम्भो 'ज्योतिष: ' अग्नेः समीपे व्यवस्थित उपज्योतिर्वर्ती' 'विलीयते' द्रवति, एवं योषितां 'संवासे' सान्निध्ये विद्वानपि आस्तां तावदितरो योऽपि विदितवेद्योऽसावपि धर्मानुष्ठानं प्रति 'विषीदेत' शीतलविहारी भवेदिति ॥ २६ ॥
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टीकार्थ - अथवा स्त्री साधु के पास इस बहाने से आती है, कि मैं श्राविका हूं इसलिए मैं साधुओं की साधर्मिणी हूं । ऐसा प्रपञ्च रचकर स्त्री साधु के पास आकर कुलवालुक की तरह साधु को धर्म से भ्रष्ट कर देती है । आशय यह है कि स्त्री का संसर्ग ब्रह्मचारियों के लिए महान् अनर्थ का कारण होता है, कहा भी है वह ज्ञान और वह विज्ञान, वह तप और वह संयम, ये सभी एक ही बार नष्ट हो गये, स्त्रियां कैसी अनर्थ की मूल हैं ।
इस विषय में शास्त्रकार दृष्टान्त बतलाते हैं, जैसे-लाख का घड़ा आग के पास गल जाता है, इसी तरह स्त्री के साथ निवास करने से विद्वान् पुरुष जो जानने योग्य पदार्थो को जानते हैं, वे भी धर्मानुष्ठान करने में शिथिलविहारी हो जाते हैं, फिर दूसरे पुरुषों की तो बात ही क्या है ||२६||
एवं तावत्स्त्रीसान्निध्ये दोषान् प्रदर्श्य तत्संस्पर्शजं दोषं दर्शयितुमाह
इस प्रकार स्त्री के संनिधान से होनेवाले दोषों को बताकर उसके स्पर्श से होनेवाले दोषों को दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं