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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा ३
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् परित्यज्यात्मा दत्तः त्वं पुनरकिञ्चित्कर इत्यादि भणित्वा, प्रकुपितायाः तस्या असौ विषयमूर्च्छितस्तत्प्रत्यायनाथ पादयोर्निपतति, तदुक्तम्
'व्याभिन्लकेसरबृहच्छिरसच सिंहा, नागाश्च दानमदराजिकृशैः कपोलैः । मेधाविनध पुरुषाः समरे च शूराः, खीसन्निधौ परमकापुरुषा भवन्ति ||१||
ततो विषयेष्वेकान्तेन मूर्च्छित इति परिज्ञानात् पश्चात् ‘पादं' निजवामचरणम् ‘उद्धृत्य' उत्क्षिप्य 'मूर्ध्नि' शिरसि 'प्रघ्नन्ति' ताडयन्ति, एवं विडम्बनां प्रापयन्तीति ।।२।। अन्यच्च
टीकार्थ - अथ शब्द का अनन्तर अर्थ है, तु शब्द विशेषणार्थक है, स्त्री के साथ सम्पर्क होने के पश्चात् चारित्र से भ्रष्ट और स्त्री में आसक्त एवं इच्छामदनरूप काम भोग में जिसके मन की प्रवृत्ति है, ऐसे साधु को जब स्त्री जान जाती है कि मैं जिसको श्वेत या काला कहूंगा उसे यह भी ऐसा ही कहेगा क्योंकि यह मेरे वश में है अथवा वह अपने किये हुए कार्य को खूब साधु पर आभार देती हुई और उस साधु के किये कार्य को कहती है, जैसे कि - तुम लुञ्चित शिर हो और पसीना तथा मल से भरा हुआ तुम्हारा, काँख, छाती और बस्तिस्थान दुर्गन्ध हैं तथापि मैंने अपना कुल, शील, मर्यादा, लज्जा और धर्म आदि को छोड़कर अपना शरीर तुम को अर्पण कर दिया है परन्तु तुम मेरे लिये कुछ भी नहीं करते हो, इस प्रकार कहती हुई क्रोधित उस स्त्री को प्रसन्न करने के लिए विषय मूर्च्छित वह साधु उसके पैर पर गिरता है। कहा भी है
__ (व्याभिन्न) अर्थात् जिसके ऊपर केसर (बाल) खूब घने उत्पन्न हुए हैं, अत एव विशाल शिरवाले सिंह और दान जल से जिसका कपोल दुर्बल हो गया है ऐसे हाथी तथा मेधावी पुरुष और समर में शूरवीर पुरुष स्त्री के सामने अत्यन्त कायर हो जाते हैं।
जब वह स्त्री जान जाती है कि यह साधु विषय में अत्यन्त मूर्च्छित है तब वह अपना वाम पैर उठाकर उसके शिर पर प्रहार करती है। इस प्रकार वह उस साधु की दुर्गति करती है ॥२॥ कोई स्त्री इस प्रकार भी कहती
जइ केसिआ णं मए भिक्खू, णो विहरे सह णमित्थीए । केसाणविह लूचिस्सं, नन्नत्थ मए चरिज्जासि
॥३॥ छाया - यदि केशिकया मया मिक्षो । नो विहरेः सहस्त्रिया ।
केशानिह लुशिष्यामि नाव्यत्र मया चरेः ॥ अन्वयार्थ - (जइ) यदि (केसिया) केशवाली (मए) मुझ (इत्थीए) स्त्री के साथ (भिक्खू) हे साधो ! (णो विहरे) नहीं विहार कर सकते तो (इह) इसी जगह (केसाणं लुचिस्स) केशों का मैं लोच कर दूंगी । (मए नन्नत्थ चरेज्जासि) तूं मेरे बिना किसी दूसरे स्थान पर विहार मत करो।
भावार्थ - स्त्री कहती है कि भिक्षो ! यदि मुझ केशवाली स्त्री के साथ विहार करने में तूं लज्जित होता है तो मैं इसी जगह अपने केशों को उखाड फेंकूगी परन्तु मेरे बिना तूं किसी दूसरी जगह न जाओ ।
टीका - केशा विद्यन्ते यस्याः सा केशिका णमिति वाक्यालङ्कारे, हे भिक्षो ! यदि मया 'स्त्रिया' भार्यया केशवत्या सह नो विहरेस्त्वं, सकेशया स्त्रिया भोगान् भुञ्जानो व्रीडां यदि वहसि ततः केशानप्यहं त्वत्सङ्गमाकाङ्क्षिणी 'लुञ्चिष्यामि' अपनेष्यामि, आस्तां तावदलङ्कारादिकमित्यपिशब्दार्थः, अस्य चोपलक्षणार्थत्वादन्यदपि यद् दुष्करं विदेशगमनादिकं तत्सर्वमहं करिष्ये, त्वं पुनर्मया रहितो नान्यत्र चरेः, इदमुक्तं भवति - मया रहितेन भवता क्षणमपि न स्थातव्यम् । एतावदेवाहं भवन्तं प्रार्थयामि, अहमपि यद्भवानादिशति तत्सर्वं विधास्य इति ॥३॥
1. निपतितः प्र०।
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