Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 325
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा १४-१५ घडिगं च सडिंडिमयं च, चेलगोलं कुमारभूयाए । वासं समभिआवण्णं, आवसहं च जाण भत्तं च छाया - घटिकां च सडिमडिमां च, चेलगोलकं च कुमारक्रीडाय । वर्षं च समभ्यापट्टामावसयं च जानीहि भक्तं च ॥ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् ।।१४।। अन्वयार्थ - (घडियं च सडिंडिमयं च ) मिट्टी की गुडिया और बाजा (चेलगोलयं च कुमारभूयाए) तथा अपने लड़के को खेलने के लिए कपड़े की बनी हुई गेंद लाओ (वासं च समभियावण्णं) वर्षा ऋतु पास आ गयी है (आवसहं च भत्तं च जाण) वर्षा से बचने के लिए घर और अन्न का शीघ्र प्रबन्ध करो । भावार्थ - शीलभ्रष्ट साधु से उसकी प्रियतमा कहती है कि हे प्रियतम ! अपने कुमार को खेलने के लिए मिट्टि की गुडिया, बाजा और कपड़े की बनी हुई गेंद लाओ। वर्षा ऋतु आ गयी है, इसलिए वर्षा से बचने के लिए मकान और अन्न का प्रबन्ध करो । टीका - घटिकां मृन्मयकुल्लडिकां 'डिण्डिमेन' पटहकादिवादित्रविशेषेण सह तथा 'चेलगोलं'ति वस्त्रात्मकं कन्दुकं 'कुमारभूताय' क्षुल्लकरूपाय राजकुमारभूताय वा मत्पुत्राय क्रीडनार्थमुपानयेति, तथा वर्षमिति प्रावृट्कालोऽयम् अभ्यापन्नः - अभिमुखं समापन्नोऽत 'आवसथं' गृहं प्रावृट्कालनिवासयोग्यं तथा 'भक्तं च' तन्दुलादिकं तत्कालयोग्यं 'जानीहि' निरूपय निष्पादय, येन सुखेनैवानागतपरिकल्पितावसथादिना प्रावृट्कालोऽतिवाह्यते इति, तदुक्तम् - "मासैरष्टभिरह्ना च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत्कर्तव्यं मनुष्येण, यस्यान्ते सुखमेधते इति ||१|| || १४ || " - कार्थ हे प्रियतम ! राजकुमार के समान छोटे मेरे पुत्र को खेलने के लिए मिट्टी की गुड़िया तथा बाजा और कपड़े की बनी हुई गेंद लाओ । हे प्रियतम ! वर्षाकाल निकट है इसलिए वर्षाकाल में निवास करने के योग्य मकान तथा उस काल के योग्य चावल आदि का प्रबन्ध कर लो जिससे सुख पूर्वक वर्षाकाल व्यतीत किया जा सके । कहा है आसंदियं च नवसुत्तं, पाउल्लाई संकमट्ठाए । अदू पुत्तदोहलट्ठाए आणप्पा हवंति दासा वा (मासैरष्टभिः) आठ मासों में ऐसा कार्य्य करना चाहिए, जिससे वर्षाकाल के चार मासों में सुख प्राप्त हो तथा दिन में वह कार्य्य कर लेना चाहिए, जिससे रात्रि में आनन्द प्राप्त हो एवं आयु के पूर्वभाग में मनुष्य को वह कार्य्यं करना चाहिए, जिससे अन्त में सुख मिले ||१४|| ।।१५।। छाया - आसब्दिकां च नवसूत्रां पादुकाः संक्रमणार्थाय । अथ पुत्रदोहदार्थाय आज्ञप्ताः भवन्ति दासा इव ॥ अन्वयार्थ – (नवसुत्तं च आसंदियं) नये सूतों से बनी हुई बैठने के लिए एक मैंचिया लाओ (संकमट्ठाए पाउल्लाई) इधर-उधर घूमने - के लिए पादुका खडा लाओ ( अदु पुत्तदोहलट्ठाए) मेरे पुत्र दोहद के लिए अमुक वस्तु लाओ ( दासा वा आणप्पा हवंति ) इस प्रकार स्त्रियां दास की तरह पुरुषों पर आज्ञा करती हैं। भावार्थ - हे प्रियतम । नये सुतों से बनी हुई एक मँचिया बैठने के लिए लाओ तथा इधर-उधर घूमने के लिए एक खडाऊं लाओ मुझको गर्भ दोहद उत्पन्न हुआ है इसलिए अमुक वस्तु लाओ इस प्रकार स्त्रियां दास की तरह पुरुषों पर आज्ञा करती हैं । टीका तथा 'आसंदिय' मित्यादि, आसन्दिकामुपवेशनयोग्यां मञ्चिकां तामेव विशिनष्टि नवं - प्रत्यग्रं सूत्रं वल्कवलितं यस्यां सा नवसूत्रा ताम् उपलक्षणार्थत्वाद्वध्रचर्मावनद्धां वा निरूपयेति वा एवं च- मौजे काष्ठपादुके वा ‘संक्रमणार्थं' पर्यटनार्थं निरूपय, यतो नाहं निरावरणपादा भूमौ पदमपि दातुं समर्थेति, अथवा पुत्रे गर्भस्थे दौहृदः 1. अनागते परिकल्पितं यदावसथादि तेन । २८५

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