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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा २०-२१
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् के सम्बन्ध से उत्पन्न कामभोग पाप को उत्पन्न करता है, यह तीर्थङ्कर और गणधर आदि ने कहा है ॥१९॥
- सर्वोपसंहारार्थमाह -
- अब शास्त्रकार सब को समाप्त करते हुए कहते हैं - एयं भयं ण सेयाय, इइ से अप्पगं निलंभित्ता । णो इत्थिं णो पसुंभिक्खू, णो सयं पाणिणा णिलिज्जेज्जा
॥२०॥ छाया - एवं भयं न श्रेयसे, इति स आत्मानं निरुध्य । नो स्त्री नो पशुं भिक्षुः नो स्वयं पाणिना निलीयेत ॥
__अन्वयार्थ - (एयं भयं ण सेयाय) स्त्री के साथ संसर्ग करने से पूर्वोक्त भय होता है तथा वह कल्याण के लिए नहीं होता है (इइ से अप्पगं निलंभिता) इसलिए साधु अपने को स्त्री संसर्ग से रोककर (णो इत्यिं णो पसुंणो सयं पाणिणा भिक्खू णिलिज्जेज्जा) स्त्री को, पशु को अपने हाथ से स्पर्श न करे ।
भावार्थ- स्त्री के साथ संसर्ग करने से पूर्वोक्त भय होता है तथा स्त्री संसर्ग कल्याण का नाशक है इसलिए साधु स्त्री तथा पश को अपने हाथ से स्पर्श न करे ।
टीका - ‘एवम्' अनन्तरनीत्या भयहेतुत्वात् स्त्रीभिर्विज्ञप्तं तथा संस्तवस्तत्संवासश्च भयमित्यतः स्त्रीभिः सार्ध सम्पर्को न श्रेयसे असदनुष्ठानहेतुत्वात्तस्येत्येवं परिज्ञाय स भिक्षुरवगतकामभोगविपाक आत्मानं स्त्रीसम्पनिरुध्य सन्मार्गे व्यवस्थाप्य यत्कुर्यात्तद्दर्शयति-न स्त्रियं नरकवीथीप्रायां नापि पशुं 'लीयेत' आश्रयेत, स्त्रीपशुभ्यां सह संवासं परित्यजेत्, 'स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता शय्ये' तिवचनात्, तथा स्वकीयेन 'पाणिना' हस्तेनावाच्यस्य 'न णिलिज्जेज्जत्ति न सम्बाधनं कुर्यात्, यतस्तदपि हस्तसम्बाधनं चारित्रं शबलीकरोति, यदिवा-स्त्रीपश्वादिकं स्वेन पाणिना न स्पृशेदिति ॥२०॥ अपि च
टीकार्थ - पहले कही हुई रीति के अनुसार स्त्रियों की प्रार्थना तथा उनके साथ परिचय और उनके साथ रहना भय का कारण है, इसलिए वह भय है तथा स्त्री का सम्पर्क अशुभ अनुष्ठान का कारण है, इसलि के लिए नहीं है, यह जानकर कामभोग के विपाक को जाननेवाला साधु स्त्री संसर्ग से अपने को रोककर तथा उत्तम मार्ग में अपने को रखकर जो कार्य करे सो शास्त्रकार दिखलाते हैं- नरक ले जाने का मार्ग प्रायः स्त्री तथा पशु का आश्रय साधु न लेवे अर्थात् साधु स्त्री और पशु के साथ संवास न करे । साधु की शय्या स्त्री, पशु और नपुंसक से वर्जित होनी चाहिए, यह शास्त्र का वाक्य है । तथा अपने हाथ से अपने गुप्तेन्द्रिय का पीड़न न करे क्योंकि ऐसा करने से भी चारित्र सबल दोष वाला होता है, बिगड़ जाता है अथवा स्त्री, पशु आदि को अपने हाथ से साधु स्पर्श न करे ॥२०॥
सुविसुद्धलेसे मेहावी, परकिरिअंच वज्जए नाणी । मणसा वयसा कायेणं, सव्वफाससहे अणगारे ।।२१।। छाया - सुविशुद्धलेश्यः मेधावी परक्रियां च वर्जयेदहानी । मनसा वचसा कायेन सर्व स्पर्शसहोऽनगारः ॥
अन्वयार्थ - (सुविसुद्धलेसे) विशुद्धचित्त (मेहावी नाणी) और मर्यादा में स्थित ज्ञानी पुरुष (मणसा वयसा कायेणं) मन, वचन और काय से (परकिरियं च वज्जए) दूसरे की क्रिया को वर्जित करे (सव्वफाससहे अणगारे) जो शीत, उष्ण आदि सब स्पर्शों को सहन करता है, वही साधु है।
भावार्थ - विशुद्ध चित्तवाला तथा मर्यादा में स्थित ज्ञानी साधु मन, वचन और काय से दूसरे की क्रिया को वर्जित करे । जो पुरुष, शीत, उष्ण आदि सब स्पों को सहन करता है, वही साधु है।
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