Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 322
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा ९-१० स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् 'वेणुफलाई'ति वेणुकार्याणि करण्डकपेटुकादीनि सन्निधिः सन्निधानं- वस्त्रादेर्व्यवस्थापनं तदर्थमानयेति ॥८॥ किञ्च - टीकार्थ - कुष्ट कमलकुष्ट को कहते हैं तथा अगर और तगर ये भी दो सुगन्धि द्रव्य हैं, ये सब कुष्ट आदि सुगन्धि द्रव्य उशीर के जल में पीसे हुए सुगन्ध देते हैं, इसलिए हे स्वामिन् ! तुम इन सबों को उशीर के जल के साथ पीसो । तथा लोध्र के फूल आदि के द्वारा सुगन्धी किया हुआ तेल मुख में लगाने के लिए लाओ। आशय यह है कि मुख में लगाने के लिए इस प्रकार का तेल लाओ जिससे मेरा मुख कान्तियुक्त हो जाय । तथा मेरे कपड़ों को रखने के लिए बाँस की बनी हुई पेटी आदि लाओ ॥८॥ नंदीचुण्णगाई पाहराहि, छत्तोवाणहं च जाणाहि । सत्थं च सूवच्छेज्जाए, आणीलं च वत्थयं रयावेहि ॥९॥ छाया - नन्दीचूर्ण प्राहर, छत्रोपानही च जानीहिं । शस्त्रं च सूपच्छेदाय आनीलं च वस्त्रं रक्षय ॥ अन्वयार्थ - (नंदीचुण्णगाई पाहराहि) ओष्ठ रंगने के लिए चूर्ण लाओ (छत्तोवाणहं च जाणाहि) छत्ता और जूता लाओ (सूवच्छेज्जाए सत्थं च) तथा शाक काटने के लिए शस्त्र यानी छुरी लाओ (आनीलं च वत्थं रयावेहि) तथा नील वस्त्र रंगाकर लाओ । भावार्थ - स्त्री अपने में अनुरक्त पुरुष से कहती है कि- हे प्रियतम ! मुझको ओष्ठ रँगने के लिए चूर्ण लाओ तथा छाता, जूता और शाक काटने के लिए छुरी लाओ, मुझको नील वस्त्र रँगा कर ला दो । टीका - 'नन्दीचुण्णगाई ति द्रव्यसंयोगनिष्पादितोष्ठम्रक्षणचूर्णोऽभिधीयते, तमेवम्भूतं चूर्णं प्रकर्षण-येन केनचित्प्रकारेण 'आहर' आनयेति, तथाऽऽतपस्य वृष्टेर्वा संरक्षणाय छत्रं तथा उपानहौ च ममानुजानीहि, न मे शरीरमेभिर्विना वर्तते ततो ददस्वेति, तथा 'शस्त्रं' दात्रादिकं 'सूपच्छेदनाय' पत्रशाकच्छेदनार्थं ढौकयस्व, तथा 'वस्त्रम्' अम्बरं परिधानार्थ गुलिकादिना रञ्जय यथा आनीलम्-ईषन्नीलं सामस्त्येन वा नीलं भवति, उपलक्षणार्थत्वाद्रक्तं वा यथा भवतीति ॥९॥ तथा - टीकार्थ - द्रव्यों के संयोग से बने हुए ओष्ठ रँगने के चूर्ण को 'नंदीचूर्णक' कहते हैं, ऐसा चूर्ण तुम जिस किसी प्रकार भी लाओ। तथा धूप और वर्षा से शरीर की रक्षा करने के लिए छत्ता और जूता पहनने की मुझको आज्ञा दो । मेरा शरीर इनके बिना ठीक नहीं रहता है, इसलिए मुझको ये चीजें ला दो । तथा पत्ता शाक काटने के लिए चाकू आदि शस्त्र लाकर दो, एवं मेरे पहनने के लिए कपड़ा रँग दो, जिस प्रकार मेरा वस्त्र थोड़ा नील अथवा पूरा नील अथवा उपलक्षण होने से कुछ रक्त वर्ण हो जाय ऐसा रँग दो ॥९॥ सुफणिं च सागपागाए, आमलगाई दगाहरणं च । तिलगकरणिमंजणसलागं, प्रिंसु मे विहूणयं विजाणेहि ॥१०॥ छाया - सुफणि च शाकपाकाय आमलकाब्युदकाहरणं च । तिलककरण्यञ्जन शलाका ग्रीष्मे विथूनकमपि नानीहि ॥ अन्वयार्थ - (सागपागाए सुफणि) हे प्रियतम ! शाक पकाने के लिए तपेली (वटलोई) लाओ (आमलगाई दगाहरणं च) आँवला तथा जल रखने का पात्र लाओ (तिलककरणिमंजनसलागं) तिलक और अञ्जन लगाने के लिए सलाई लाओ (प्रिंसु मे विहूणयं विजाणेहि) तथा गर्मी में हवा करने के लिए पंखा लाओ। भावर्थ - स्त्री शीलभ्रष्ट पुरुष से कहती है कि- हे प्रियतम ! शाक पकाने के लिए तपेली लाओ तथा आँवला, जल रखने का पात्र, तिलक और अंजन लगाने की सलाई एवं गर्मी में हवा करने के लिए पंखा लाकर मुझको दो । टीका - सष्ठ सखेन वा फण्यते-क्वाथ्यते तक्रादिकं यत्र तत्सफणि-स्थालीपिठरादिकं भाजनमभिधीयते २८२

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