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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा २
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् विषयपाश से मनुष्य मोह को प्राप्त होता है, अतः अकेला अर्थात् रागद्वेष रहित साधु स्त्रियों में राग न करे । परम्पर सूत्र के साथ सम्बन्ध यह है - देखने में सुन्दर किसी साधु को यदि कोई स्त्री पशु को लुभाने के लिए चावल के दानों के समान भोजन आदि देकर ठगना चाहे तो साधु राग-द्वेष रहित होकर उसमें अनुरक्त न हो । ओज दो प्रकार का होता है, द्रव्य ओज परमाणु है और भाव ओज रागद्वेष रहित पुरुष है। स्त्री में राग करने से इसी लोक में आगे कहे अनुसार नाना प्रकार के कष्ट होते हैं और उससे कर्मबन्ध होता है तथा उस कर्मबन्ध के विपाक से नरक आदि में तीव्र पीड़ा भोगनी पड़ती है। अतः साधु यह जानकर भाव से ओज अर्थात् राग-द्वेष रहित होकर सर्वदा अनर्थ की खानि स्त्रियों में अनुरक्त न हो । यदि कदाचित् मोह के उदय से साधु को भोग की अभिलाषा हो तो इस लोक और पर लोक में स्त्री संसर्ग से होनेवाले दुःखों का विचारकर स्त्रियों से विरक्त हो जाय । आशय यह है कि - कर्म के उदय से यदि चित्त स्त्री में प्रवृत्त हो जाय तो भी त्याग करने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदाथों को सोचकर साधु ज्ञानरूपी अकुश से उसको हटा दे। जो विशेष तपस्या करता हुआ खेद को प्राप्त होता है, उसे श्रमण कहते हैं। उन श्रमणों का भी भोग भोगना तुम सुनो । आशय यह है कि - गृहस्थों के लिए भी भोग विडम्बनादायक है फिर यतिओं को तो कहना ही क्या है? उनको तो भोग सतरां विडम्बना दायक ही है फिर भोग भोगने से जो अवस्था होती है, उसकी तो बात ही क्या है ? कहा भी है - 'मुण्डं शिर' इत्यादि पूर्ववत् जानना चाहिए । तथा यह भोग विडम्बना प्रायः है, फिर भी इसे कोई ढीले साधु जिस प्रकार भोगते हैं सो आगे कहे जानेवाले इस उद्देशक के सूत्रों के द्वारा बहुत विस्तृत प्रबन्ध से शास्त्रकार दिखालायेंगे । अन्यों ने भी कहा है -
दुबला, काना, लँगडा, कानरहित, पुच्छरहित, क्षुधा से दुर्बल, ढीले अङ्गोंवाला, गले में लगे हुए कपाल के द्वारा पीडित, मवाद से भीगे घावों और सैकड़ों कीडों से भरा हुआ शरीरवाला कुत्ता कुत्ती के पोछे दौड़ता है, कामदेव मरे को भी मारता है।॥१॥
- भोगिनां विडम्बनां दर्शयितुमाह -
- भोग में आसक्त पुरुष की दुर्दशा दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - अह तंतु भेदमावनं, मुच्छितं भिक्खुंकाममतिवढं । पलिभिंदिया ण तो पच्छा, पादुद्ध? मुद्धि पहणंति
॥२॥ छाया - अथ तं तु भेदमापनं मूर्छितं भिक्षु काममतिवर्तम् ।
परिभिध तत्पश्चात् पादावुद्धृत्य मूर्घि प्रनिन्ति । अन्वयार्थ - (अह भेदमावन्नं) इसके पश्चात् चारित्र से भ्रष्ट (मुच्छितं) स्त्री में आसक्त (काममतिवट्ठ) विषय भोग में लग्नचित्त (तं तु भिक्खु) उस साधु को वह स्त्री (पलिभिदिया ण) अपने वशीभूत जानकर (तो पच्छा पादुट्ट) अपना पैर उठाकर (मुद्धि पहणति) उसके शिर पर पैर का प्रहार करती है
भावार्थ- चारित्र से भ्रष्ट स्त्री में आसक्त, विषय भोग में लग्नचित्त साधु को जानकर स्त्री उसके शिर पर पैर का प्रहार करती है।
___टीका - 'अथे' त्यानन्तर्यार्थः तुशब्दो विशेषणार्थः, स्त्रीसंस्तवादनन्तरं 'भिक्षु' साधुं 'भेदं' शीलभेदं चारित्रस्खलनम् 'आपलं' प्राप्तं सन्तं स्त्रीषु 'मूर्छितं' गृद्धमध्युपपन्नं, तमेव विशिनष्टि - कामेषु इच्छामदनरूपेषु मतेःबुद्धेर्मनसो वा वर्तो - वर्तनं प्रवृत्तिर्यस्यासौ काममतिवर्तः - कामाभिलाषुक इत्यर्थः, तमेवम्भूतं 'परिभिद्य' मदभ्युपगतः श्वेतकृष्णप्रतिपत्ता 'मद्वशक इत्येवं परिज्ञाय यदिवा - परिभिद्य - परिसार्यात्मकृतं तत्कृतं चोच्चार्येति, तद्यथा - मया तव लुञ्चितशिरसो जल्लमलाविलतया दुर्गन्धस्य जुगुप्सनीयकक्षावक्षोबस्तिस्थानस्य कुलशीलमर्यादालज्जाधर्मादीन्
1. ०शत प्र०।
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