Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 315
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा ३१ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् आदि जिसका आपको प्रयोजन हो, वह सब मैं आपको दूंगी आप मेरे घर आकर ग्रहण करें ||३०|| उपसंहाराथमाह अब इस उद्देशक का उपसंहार करने के लिए कहते हैं णीवारमेवं बुज्झेज्जा, गो इच्छे अगार मागंतुं । बद्धे विसयपासेहिं, मोहमावज्जइ पुणो मंदे त्ति बेमि इति इत्थीपरिन्नाए पढमोउद्देसो समत्तो ॥ ४ - १ ।। (गाथाग्रम्-२८७) छाया - नीवारमेवं बुध्येत, नेच्छेदगारमागन्तुम् । बद्धो विषयपाशेन मोहमापद्यते पुनर्मन्दः ॥ इति ब्रवीमि अन्वयार्थ - ( एवं ) इस प्रकार के प्रलोभन को साधु (णीवारं बुज्झेज्जा) सूअर को फँसाने वाले चावल के दाने के समान समझे ( अगार मागंतुं णो इच्छे) घर आने की इच्छा न करे ( विसयपासेहिं बद्धे मंदे) विषय पाश से बँधा हुआ मूर्ख पुरुष ( मोहमावज्जइ ) मोह को प्राप्त होता है । (त्तिबेमि) यह मैं कहता हूं । - भावार्थ पूर्वोक्त प्रकार के प्रलोभनों को साधु. सूअर को लुभानेवाले चावल के दानों के समान समझे । विषयरूपी पाश से बँधा हुआ मूर्ख पुरुष मोह को प्राप्त होता है । ॥३१॥ टीका - एतद्योषितां वस्त्रादिकमामन्त्रणं नीवारकल्पं 'बुध्येत' जानीयात्, यथा हि नीवारेण केनचिद्भक्ष्यविशेषेण सूकरादिर्वशमानीयते, एवमसावपि तेनामन्त्रणेन वशमानीयते, अतस्तन्नेच्छेद् 'अगारं' गृहं गन्तुं यदिवा - गृहमेवावर्तो गृहावर्तो गृहभ्रमस्तं नेच्छेत्' नाभिलषेत्, किमिति ? यतो 'बद्धो' वशीकृतो विषया एव शब्दादय:, 'पाशा ' रज्जूबन्धनानि तैर्बद्ध: - परवशीकृतः स्नेहपाशानपत्रोटयितुमसमर्थः सन् 'मोहं' चित्तव्याकुलत्वमागच्छति - किंकर्तव्यतामूढो भवति पौनःपुन्येन 'मन्दः' अज्ञो जड इतिः परिसमाप्तौ । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥३१॥ इति स्त्रीपरिज्ञायां प्रथमोद्देशकः समाप्तः 118-211 इति स्त्रीपरिज्ञायाः प्रथम उद्देशः समाप्तः । टीकार्थ स्त्रियों द्वारा किये गये वस्त्र, पात्र आदि देने रूप आमन्त्रण को साधु चावल के दाने के समान समझे । जैसे चावल के दानों को छिटककर शूकर आदि को वश करते हैं। इसी तरह स्त्री भी वस्त्र, पात्र आदि के दानरूप आमन्त्रण के द्वारा साधु को वश करती है । अतः साधु फिर उस स्त्री के घर जाने की इच्छा न करे अथवा गृहरूपी भँवर में पड़ने की फिर इच्छा न करे । पाश के समान शब्दादि विषयों के द्वारा बँधा हुआ अज्ञ जीव, स्नेह पाश को तोड़ने में समर्थ नहीं होता है वह बार बार व्याकुल चित्त होता है, उसे अपने कर्त्तव्य का ज्ञान नहीं होता । इति शब्द समाप्ति अर्थ में आया है ब्रवीमि यह पूर्ववत् है ||३१|| स्त्री परिज्ञाध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ । - 1. ० मावद्वंति पाठान्तरसंभवः । २७५

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