________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा २७-२८
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् जतुकुंभे जोइउवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुवयाइ । एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति
॥२७॥ छाया - जतुकुम्भो ज्योतिरुपगूढः आश्वभितप्तो नाशमुपयाति ।
___एवं स्त्रीभिरनगाराः संवासेन नाशमुपयान्ति | अन्वयार्थ - (जोइउवगूढे, जतुकुंभे) जैसे अग्नि से स्पर्श किया हुआ लाख का घडा (आसुभितत्ते णासमुवयाइ) शीघ्र तप्त होकर नाश को प्राप्त हो जाता है (एवित्थियाहिं संवासेण अणगारा) इसी तरह स्त्रियों के संसर्ग से अनगार पुरुष (णास मुवयंति) नाश को प्राप्त हो जाते हैं ।
भावार्थ - जैसे अग्नि के द्वारा आलिङ्गन किया हुआ लाख का घड़ा चारो तर्फ से तस होकर शीघ्र ही गल जाता है, इसी तरह अनगार पुरुष स्त्रियों के संसर्ग से शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।
टीका - यथा जातुषः कुम्भो 'ज्योतिषा' अग्निनोपगूढः -समालिङ्गितोऽभितप्तोऽग्निनाभिमुख्येन सन्तापितः क्षिप्रं 'नाशमपयाति' द्रवीभय विनश्यति, एवं स्त्रीभिः सार्धं 'संवसनेन' परिभोगेनानगारा नाशमुपयान्ति, सर्वथा जातुषकुम्भवत् व्रतकाठिन्यं परित्यज्य संयमशरीराद् प्रश्यन्ति ॥२७॥ अपिच -
टीकार्थ - जैसे अग्नि से आलिङ्गन किया हुआ लाख का घड़ा चारों ओर से अग्नि द्वारा सन्तापित किया हुआ शीघ्र ही द्रव होकर नष्ट हो जाता है, इसी तरह साधु पुरुष भी स्त्री का परिभोग करके शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, वे कठिन व्रत का आचरण करना छोड़कर संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं ॥२७॥
कुव्वंति पावगं कम्मं पुट्ठा वेगेवमाहिंसु । नोऽहं करेमि पावंति, अंकेसाइणा ममेसत्ति
॥२८॥ छाया - कुर्वन्ति पापकं कर्म, पृष्टा एके एवमाहुः ।
नाऽहं करोमि पापमिति अवेशायिनी ममेषेति ॥ अन्वयार्थ - (एगे पावगं कम्मं कुव्वंति) कोई पाप कर्म करते है (पुट्ठा एवमाहिंसु) और पूछने पर ऐसा कहते हैं (अहं पावं नो करेमिति) मैं पाप कर्म नहीं करता हूं (एसा मम अंकेसाइणा) किन्तु यह स्त्री लड़कपन में मेरे अङ्क मे सोयी हुई है।
भावार्थ - कोई भ्रष्टाचारी पुरुष पापकर्म करता हैं परन्तु आचार्य के पूछने पर कहता है कि - मैं पाप कर्म नहीं करता है, किन्तु यह स्त्री बालावस्था में मेरे अङ्क में सोयी हुई है। __टीका - तासु संसाराभिष्वङ्गिणीष्वभिषक्ता अवधीरितैहिकामुष्मिकापायाः ‘पापं कर्म' मैथुनासेवनादिकं 'कुर्वन्ति' विदधति, परिभ्रष्टाः सदनुष्ठानाद् ‘एके' केचनोत्कटमोहा, आचार्यादिना चोद्यमाना ‘एवमाहुः' वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः, तद्यथा - नाहमेवम्भूतकुलप्रसूत एतदकार्यं पापोपादानभूतं करिष्यामि, 'ममैषा दुहितृकल्पा पूर्वम् अङ्केशयिनी आसीत्, तदेषा पूर्वाभ्यासेनैव मय्येवमाचरति, न पुनरहं विदितसंसारस्वभावः प्राणात्ययेऽपि व्रतभङ्गं विधास्य इति ।।२८||किञ्च
____टीकार्थ - दूसरी बात यह है कि - संसार में फंसाने वाली स्त्री में आसक्त एवं उत्तम अनुष्ठान से भ्रष्ट तथा इसलोक और परलोक के नाश से नहीं डरनेवाले कोई पापकर्म करते हैं परन्तु उत्कट मोहवाले वे पुरुष आचार्य आदि के पूछने पर इस प्रकार कहते हैं कि मैं ऐसे कुल में उत्पन्न नहीं हूं कि ऐसा पाप का कारण स्वरूप अनुचित कर्म करूंगा । यह स्त्री मेरी पुत्री के समान है, यह बाल्य काल में मेरे अङ्क में सोती थी, अतः यह उस पूर्व अभ्यास के कारण ही मेरे साथ ऐसा आचरण करती है, वस्तुतः मैं संसार के स्वभाव को जाननेवाला हूं, मैं प्राण नष्ट होने पर भी व्रतभङ्ग नहीं करूंगा ।।२८।।
1. ममैषिका प्र०।
२७३