Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 314
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा २९-३० स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् बालस्स मंदयं बीयं, जं च कडं अवजाणई भुज्जो । दुगुणं करेइ से पावं, पूयणकामो विसनेसी ॥२९॥ छाया - बालस्य मान्द्यं द्वितीयं, यच्च कृतमपजानीते भूयः । द्विगुणं करोति स पापं पूजनकामो विषण्णेषी ॥ अन्वयार्थ - (बालस्स) मूर्ख पुरुष की (बीयं मंदयं) दूसरी मूर्खता यह है कि (जं च कडं भुज्जो अवजाणई) वह किये हुए पाप कर्म को नहीं किया हुआ कहता है । (से दुगुण पावं करेइ) अतः वह पुरुष दूना पाप करता है (पूयणकामो विसन्नेसी) वह जगत् में अपनी पूजा चाहता है और असंयम की इच्छा करता है। भावार्थ- उस मूर्ख पुरुष की दूसरी मूर्खता यह है कि वह पापकर्म करके फिर उसे इन्कार करता है, इस प्रकार वह दूना पाप करता है, वह संसार में अपनी पूजा चाहता हुआ असंयम की इच्छा करता है । ____टीका - 'बालस्य' अज्ञस्य रागद्वेषाकुलितस्यापरमार्थदृश एतद्वितीयं 'मान्ा' अज्ञत्वम् एकं तावदकार्यकरणेन चतुर्थव्रतभङ्गो द्वितीयं तदपलपनेन मृषावादः, तदेव दर्शयति - यत्कृतमसदाचरणं 'भूयः' पुनरपरेण चोद्यमानः 'अपजानीते' अपलपति - नैतन्मया कृतमिति, स एवम्भूतः असदनुष्ठानेन तदपलपनेन च द्विगुणं पापं करोति, किमर्थमपलपतीत्याह- पूजनं - सत्कारपुरस्कारस्तत्कामः - तदभिलाषी, मा मे लोके अवर्णवादः स्यादित्यकार्य प्रच्छादयति, विषण्णः - असंयमस्तमेषितुं शीलमस्येति विषण्णैषी ।।२९॥ किञ्चान्यत् टीकार्थ - राग, द्वेष से आकुल बुद्धिवाले अपरमार्थदर्शी मूर्ख की यह दूसरी मूर्खता है, एक तो अकार्य करने से चतुर्थ व्रत का भङ्ग और दूसरा उस अकार्य को नहीं स्वीकार करके मिथ्याभाषण करना, यही शास्त्रकार दिखलाते हैं - उस मूर्ख ने जो बुरा अनुष्ठान किया है, उसके विषय में दूसरे के पूछने पर उसे इन्कार करता हुआ कहता है कि "मैने यह अनुचित कार्य नहीं किया है" अतः वह पुरुष असत् अनुष्ठान करके और उसे इन्कार करके दूना पाप करता है, वह पाप करके भी क्यों इन्कार करता है ? सो शास्त्रकार बतलाते हैं, वह लोक में अपनी पूजा चाहता है, लोक में मेरी निन्दा न हो इसलिए वह अपने अकार्य को छिपाता है, वस्तुतः वह पुरुष असंयम की इच्छा करनेवाला है ॥२९॥ संलोकणिज्जमणगारं, आयगयं निमंतणेणाहंसु । वत्थं च ताइ ! पायं वा, अन्नं पाणगं पडिग्गाहे ॥३०॥ छाया - संलोकनीयमनगारमात्मगतं निमन्त्रणेनाहुः । वस्त्रं च त्रायिन् पात्रं वा भवं पानकं प्रतिगृहाण ॥ अन्वयार्थ - (संलोकणिज्ज) देखने में सुन्दर (आयगतं) आत्मज्ञानी (अणगारं) साधु को (निमंतणेणाहसु) स्त्रियां निमन्त्रण देती हुई कहती है कि (ताइ !) हे भवसागर से रक्षा करनेवाले साधो ! (वत्थं च पायं वा अन्नं पाणगं पडिग्गाहे) वस्त्र, पात्र, अन्न और पान आप मेरे से स्वीकार करें। भावार्थ - देखने में सुन्दर साधु को स्त्रियां आमन्त्रण करती हुई कहती हैं कि हे भवसागर से रक्षा करनेवाले साधो! आप मेरे यहां वस्त्र, पात्र, अन्न और पान ग्रहण करें । टीका - संलोकनीयं - संदर्शनीयमाकृतिमन्तं कञ्चन 'अनगारं' साधुमात्मनि गतमात्मगतम् आत्मज्ञमित्यर्थः, तदेवम्भूतं काश्चन स्वैरिण्यो 'निमन्त्रणेन' निमन्त्रणपुरःसरम् 'आहुः' उक्तवत्यः, तद्यथा - हे त्रायिन् ! साधो ! वस्त्रं पात्रमन्यदा पानादिकं येन केनचिद्धवतः प्रयोजनं तदहं भवते सर्वं ददामीति मदगहमागत्य प्रतिगहाण त्वमिति॥३०॥ टीकार्थ - दूसरी बात यह है कि देखने में सुन्दर उत्तम आकृतिवाले आत्मज्ञानी साधु को कोई व्यभिचारिणी स्त्रियां आमन्त्रण करती हुई कहती हैं कि हे रक्षा करनेवाले साधो ! वस्त्र, पात्र अथवा और भी पीने योग्य वस्तु २७४

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