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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा २५
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् ओर करती हैं (तम्हा) इसलिए (बहुमायाओ इथिओ णच्चा) बहुत मायावाली स्त्रियों को जानकर (भिक्खू) साधु (ण सद्दह) उनमें श्रद्धा न करे।
र्थ- स्त्रियां मन में दूसरा विचारती हैं और वाणी से दूसरा कहती हैं एवं कर्म से ओर ही करती हैं, इसलिए साधु पुरुष बहुत माया करनेवाली स्त्रियों को जानकर उन पर विश्वास न करे ।
टीका - पातालोदरगम्भीरेण मनसाऽन्यच्चिन्तयन्ति तथा श्रुतिमात्रपेशलया विपाकदारुणया वाचा अन्यद् भाषन्ते तथा 'कर्मणा' अनुष्ठानेनान्यन्निष्पादयन्ति, यत एवं बहुमायाः स्त्रिय इति, एवं ज्ञात्वा 'तस्मात्' तासां 'भिक्षुः' साधुः 'न श्रद्दधीत' तत्कृतया माययात्मानं न प्रतारयेत्, दत्तावैशिकवत्, अत्र चैतत्कथानकम् - दत्तावैशिक एकया गणिकया तैस्तैः प्रकारैः प्रतार्यमाणोऽपि तां नेष्टवान्, ततस्तयोक्तम् - किं मया दौर्भाग्यकलङ्काङ्कितया जीवन्त्या प्रयोजनम् ? अहं त्वत्परित्यक्ताऽग्निं प्रविशामि, ततोऽसाववोचत् - मायया इदमप्यस्ति वैशिके, तदाऽसौ पूर्वसुरङ्गामुखे काष्ठसमुदयं कृत्वा तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रविश्य सुरङ्गया गृहमागता, दत्तकोऽपि च इदमपि अस्ति वैशिके इत्येवमसौ विलपन्नपि 'वातिकैश्चितायां प्रक्षिप्तः, तथापि नासौ तासु श्रद्धानं कृतवान् एवमन्येनापि न श्रद्धातव्यमिति ॥२४॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - स्त्रियाँ पाताल के उदर के समान अति गम्भीर अपने मन से दूसरा सोचती हैं, और सुनने में मधुर प्रतीत होनेवाली तथा विपाक में दारुण अपनी वाणी द्वारा दूसरा भाषण करती हैं, तथा कर्म से दूसरा ही करती हैं । स्त्रियां बहुत मायावाली होती हैं इसलिए साधु उन पर विश्वास न करे, उनकी माया से अपने आत्मा को वञ्चित न होने दे । जैसे दत्तावैशिक स्त्री की माया से वञ्चित नहीं हए । इस विषय में एक कथानक है।
दत्तावैशिक को ठगने के लिए एक वेश्या ने नाना प्रकार के उपाय किये परन्तु उन्होंने उसकी कामना नहीं की, इसके पश्चात् उस वैश्या ने कहा कि - दुर्भाग्यरूपी कलङ्क से कलङ्कित मुझको जीने से क्या प्रयोजन है ? मुझको आपने छोड़ दिया है, इसलिए मैं अग्नि में प्रवेश करूंगी। यह सुनकर दत्तावैशिक ने कहा कि - स्त्रियां माया करके अग्नि में प्रवेश भी कर सकती हैं। इसके पश्चात् उस वेश्या ने सुरङ्ग के पूर्व द्वार में काष्ठराशि इकट्ठी करके उसे जलाकर सुरंग के द्वारा अपने घर पर चली आयी । इसके पश्चात् दत्तक ने कहा कि स्त्रियां ऐसी माया भी करती हैं। वह ऐसा कह रहे थे कि उनको विश्वास कराने के लिए धूर्तों ने उन्हे चिता पर फेंक दिया तथापि उन्होंने स्त्रियों पर विश्वास नहीं किया। इसी तरह दूसरे को भी स्त्रियों पर विश्वास नहीं करना चाहिए ॥२४॥
जुवती समणं बूया विचित्तलंकारवत्थगाणि परिहित्ता । विरता चरिस्सहं रुक्खं, धम्ममाइक्ख णे भयंतारो
॥२५॥ छाया - युवतिः श्रमणं बूयाद् विचित्रालङ्कारवस्त्रकाणि परिधाय ।
विरता चरिष्याम्यहं रुक्षं धर्ममाचक्ष्व नः भयत्रातः ॥ अन्वयार्थ - (जुवती) कोई युवती स्त्री (विचित्तलंकारवत्थगाणि परिहित्ता) विचित्र अलङ्कार और वस्त्र पहनकर (समर्ण बूया) साधु से कहे कि - (अहं विरता रुक्खं चरिस्स) मैं अब गृह बन्धन से विरक्त होकर संयम पालन करूंगी (भयंतारो) इसलिए हे भय से रक्षा करनेवाले साधो! (णे धम्ममाइक्ख) मुझ को आप धर्म सुनाइए ।
युवती स्त्री विचित्र अलङ्कार और भषण पहनकर साधु से कहे कि हे भय से बचानेवाले साधो! मैं विरक्त होकर संयम पालन करूंगी इसलिए आप मुझ को धर्म सुनाइए ।
टीका - 'युवती' अभिनवयौवना स्त्री विचित्रवस्त्रालङ्कारविभूषितशरीरा मायया श्रमणं ब्रूयात्, तद्यथा - विरता अहं गृहपाशात् न ममानुकूलो भर्ता मह्यं वाऽसौ न रोचते परित्यक्ता वाऽहं तेनेत्येतत् 'चरिष्यामि' करिष्याम्यहं 'रुक्ष'मिति संयम, मौनमिति वा क्वचित्पाठः तत्र मुनेरयं मौनः - संयमस्तमाचरिष्यामि, धर्ममाचक्ष्व ‘णे' त्ति अस्माकं हे भयत्रातः !, यथाऽहमेवं दुखानां भाजनं न भवामि तथा धर्ममावेदयेति ॥२५।। किञ्चान्यत् -
1. धूर्तः वि० प०।
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