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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा ४-५
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः में भी उसको सद्गति प्राप्त नहीं होती है। आशय यह है कि माता-पिता आदि स्वजन वर्ग के स्नेह में मोहित चित्त तथा विषय सुख की इच्छा करनेवाले और स्वजन वर्ग के लिए कष्ट सहनेवाले जीव की दुर्गति ही होती है। अतः इस प्रकार दुर्गतिगमन आदि भय कारणों को देखकर सुव्रत या सुस्थित पुरुष आरम्भ से निवृत्त हो जायाँ।३।।
- अनिवृत्तस्य दोषमाह -
- जो पुरुष सावध अनुष्ठानों से निवृत्त नहीं होते उनके दोष शास्त्रकार बताते हैजमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाहइ, णो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं
॥४॥ छाया - यदिदं जगति पृथग्जगाः, कर्मभिर्तृप्यन्ते प्राणिनः । स्वयमेव कृतेर्गाहते, नो तस्य मुच्येदस्पृष्टः ॥
व्याकरण - (जं इणं) सर्वनाम (जगती) अधिकरण (पुढो) अव्यय (जगा) प्राणी का विशेषण (कम्मेहिं) करण । (पाणिणो) कर्ता (लुप्पंति) क्रिया (सयं, एव) अव्यय (कडेहिं) हेतुतृतीयान्त (गाहइ) क्रिया (णो) अव्यय (अपुट्ठयं) प्राणी का विशेषण (मुच्चेज्ज) क्रिया (तस्स) स्पर्श क्रिया का कर्ता ।
अन्वयार्थ - (जमिणं) क्योंकि अनिवृत्त पुरुष की यह दशा होती है (जगती) संसार में (पुढो जगा) अलग अलग (पाणिणो) जीव, (सयमेव) अपने (कडेहिं) किये हुए (कम्मेहिं) कर्मों के द्वारा (लुप्यंति) दुःख पाते हैं (गाहइ) वे अपने किये हुए कर्मों के कारण ही नरक आदि यातना स्थानों में जाते हैं (तस्स अपुट्ठयं) और अपने कर्म का फल भोगे बिना (णो मुच्चेज्ज) वे मुक्त नहीं हो सकते हैं।
भावार्थ - जो जीव सावध कर्मों का अनुष्ठान नहीं छोड़ते है, उनकी यह दशा होती है - संसार में अलग-अलग निवास करनेवाले प्राणी अपने किये हुए कर्म का फल भोगने के लिए नरक आदि यातनास्थानों में जाते हैं। वे अपने कर्मों का फल भोगे बिना मुक्त नहीं हो सकते ।
___टीका - - यद् यस्मादनिवृत्तानामिदं भवति, किं तत् ? जगति 'पुढो'त्ति - पृथग्भूताः-व्यवस्थिताः सावद्यानुष्ठानोपचितैः कर्मभिः विलुप्यन्ते नरकादिषु यातनास्थानेषु भ्राम्यन्ते, स्वयमेव च कृतैः कर्मभिर्नेश्वराद्यापादितः, गाहते नरकादिस्थानानि यानि तानि वा कर्माणि दुःखहेतूनि गाहते-उपचिनोति, अनेन च हेतुहेतुमद्भावः कर्मणामुपदर्शितो भवति, न च तस्य अशुभाचरितस्य कर्मणो विपाकेन अस्पृष्टः अच्छुप्तो मुच्यते जन्तुः कर्मणामुदयमननुभूय तपोविशेषमन्तरेण दीक्षाप्रवेशादिना न तदपगमं विधत्त इति भावः ॥४॥
टीकार्थ - - जो पुरुष सावध अनुष्ठानों से निवृत्त नहीं होते उनकी दशा यह होती है- क्या दशा होती है ? सो बतलाते है- जगत में अलग-अलग निवास करनेवाले प्राणी अपने सावध अनुष्ठानों के द्वारा संच हुए कर्मों के द्वारा नरक आदि यातना स्थानों में भ्रमण कराये जाते हैं । वे प्राणी अपने किये हुए कर्मों से ही नरक आदि यातनास्थानों को अथवा दुःख के कारणभूत कर्मों को प्राप्त करते है, परन्तु ईश्वर आदि किसी अन्य कारण से नहीं । इन बातों के द्वारा अपने कर्मों के साथ अपने दुःखों का कार्यकारणभाव दिखाया गया है। वह प्राणी अपने कर्मों का फल भोगे बिना उन कर्मों से मुक्ति नहीं पाता है। प्राणी अपने कर्म का उदय भोगे बिना तथा विशिष्ट तपस्या और दीक्षा ग्रहण किये बिना उन कर्मों का नाश नहीं कर सकता है ॥४॥
- अधुना सर्वस्थानानित्यतां दर्शयितुमाह -
- इस जगत में जितने स्थान हैं, सभी अनित्य हैं यह दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं । देवा गंधव्वरक्खसा, असुरा भूमिचरा सरीसिवा । राया नरसेठिमाहणा, ठाणा तेऽवि चयंति दुक्खिया ११८
॥५॥