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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा १७
उपसर्गाधिकारः भावार्थ - उस अनार्य देश के आसपास विचरता हुआ साधु जब अनार्य पुरुषों के द्वारा लाठी मुक्का अथवा फल के द्वारा पीटा जाता है तब वह अपने बन्धु बांधवों को उसी प्रकार स्मरण करता है जैसे क्रोधित होकर घर से निकलकर भागती हुई स्त्री अपने ज्ञाति वर्ग को स्मरण करती है ।
टीका - 'तत्र' तस्मिन्ननार्यदेशपर्यन्ते वर्तमानः साधरनायें: 'दण्डेन' यष्टिना मष्टिना वा 'संवीतः' प्रहतोऽथवा 'फलेन वा' मातुलिङ्गादिना खड्गादिना वा स साधुरेवं तैः कदर्यमानः कश्चिदपरिणतः 'बालः' अज्ञो 'ज्ञातीनां' स्वजनानां स्मरति, तद्यथा - यद्यत्र मम कश्चित् सम्बन्धी स्यात् नाहमेवम्भूतां कदर्थनामवाप्नुयामिति, दृष्टान्तमाह - यथा स्त्री क्रुद्धा सती स्वगृहात् गमनशीला निराश्रया मांसपेशीव सर्वस्पृहणीया तस्करादिभिरभिद्रुता सती जातपश्चात्तापा ज्ञातीनां स्मरति एवमसावपीति ॥१६॥
टीकार्थ - उस अनार्य्य देश के आसपास विचरते हुए साधु को जब अनार्य पुरुष लाठी, मुक्का, मातुलिंग एक प्रकार का निंबू आदि फल तथा तलवार आदि से मारने लगते हैं तब पीड़ा का अनुभव करता हुआ वह कच्चा अज्ञानी साधु अपने सम्बन्धियों का स्मरण करता है, वह सोचता है कि "यदि मेरा कोई सम्बन्धी यहां विद्यमान होता तो ऐसी दुर्दशा मेरी नहीं होती" इस विषय में दृष्टांत कहते है- जैसे कोई स्त्री, क्रोधित होकर अपने घर से निकलकर भाग जाती है, तब वह मांस की तरह सब लोगों के लोभ का पात्र होने से चोर जार आदि के द्वारा पकड़ी, लूटी जाती है। उस समय वह जैसे पश्चात्ताप करती हुई अपने ज्ञाति वर्ग को स्मरण करती है, उसी तरह उक्त अज्ञानी साधु भी ज्ञातिवर्ग को स्मरण करता है ॥१६॥
उपसंहारार्थमाह -
अब सूत्रकार इस उद्देशक का उपसंहार करते हुए कहते हैं - एते भो कसिणा फासा, फरुसा दुरहियासया । हत्थी वा सरसंवित्ता, कीवा वस गया गिहं
।।१७।। त्ति बेमि ।। छाया - एते भोः। कृत्स्नाः स्पर्शाः परुषाः दुरधिसह्याः । हस्तिन इव शरसंवीताः क्लीबा अवशाः गताः गृहम् । इति ब्रवीमि ।
अन्वयार्थ - (भो) हे शिष्यों! (एते) पूर्वोक्त ये (कसिणा) समस्त (फासा) स्पर्श (फरुसा) परुष हैं (दुरहियासया) और दुःसह हैं (सरसंवित्ता) बाणों से पीड़ित हाथी की तरह (कीवा) नपुंसक पुरुष (अवसा) घबराकर (गिहं गया) फिर घर को चले जाते हैं (तिबेमि) यह मैं कहता हूँ।
भावार्थ - हे शिष्यों! पूर्वोक्त उपसर्ग सभी असह्य और दुःखदायी हैं। उनसे पीड़ित होकर कायर पुरुष फिर गृहवास को ग्रहण कर लेते हैं। जैसे बाण से पीड़ित हाथी संग्राम को छोड़कर भाग जाता हैं। इसी तरह गुरुकर्मी जीव संयम को छोड़कर भाग जाते हैं ।
___टीका - भो इति शिष्यामन्त्रणं, य एत आदितः प्रभृति दंशमशकादयः पीडोत्पादकत्वेन परीषहा एवोपसर्गा अभिहिता 'कत्स्नाः ' सम्पर्णा बाहल्येन स्पश्यन्ते - स्पर्शेन्द्रियेणानुभूयन्त इति स्पर्शाः, कथम्भूताः? - 'परुषाः' परुषैरनार्यैः कृतत्वात् पीडाकारिणः, ते चाल्पसत्त्वैर्दुःखेनाधिसह्यन्ते ताँश्चासहमाना लघुप्रकृतयः केचनाश्लाघामङ्गीकृत्य हस्तिन इव रणशिरसि 'शरजालसंवीताः' शरशताकुला' भङ्गमुपयान्ति एवं 'क्लीबा' असमर्था 'अवशाः' परवशाः कर्मायत्ता गुरुकर्माणः पुनरपि गृहमेव गताः, पाठान्तरं वा 'तिव्वसड्डे'त्ति तीत्रैरुपसर्गेरभिद्रुताः 'शठाः' शठानुष्ठानाः संयम परित्यज्य गृहं गताः, इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ।।१७।।
टीकार्थ - 'भो' शब्द शिष्यों के संबोधन में आया है। जो शीत आदि से लेकर दंश मशक आदि पीड़ाकारी
1. कुलागाः प्र.
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