Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 300
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १२-१३ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् इत्यादि गाथा कहते हैं - जे एयं उंछं अणुगिद्धा, अन्नयरा हुंति कुसीलाणं । सुतस्सिएवि से भिक्खू, नो विहरे सह णमित्थीसु ॥१२॥ छाया - य एतदुच्छमनुगृद्धा अन्यतरास्ते भवन्ति कुशीलानाम् । सूतपस्यपि स भिक्षुः न विहरेत साथं स्त्रीभिः ॥ अन्वयार्थ - (जे) जो पुरुष (एयं) इस स्त्री संसर्ग रूपी (उछ) निन्दनीय कर्म में (अणुगिद्धा) आसक्त हैं (ते) वे (कुसीलाणं) कुशीलो में से (अन्नयरा) कोई एक हैं। (सो भिक्खू) इसलिए वह साधु चाहे (सुतस्सिएवि) उत्तम तपस्वी हो तो भी (इत्थीसु सह) स्त्रियों के साथ (नो विहरे) विहार न करे। भावार्थ - जो पुरुष स्त्रीसंसर्गरूपी निन्दनीय कर्म में आसक्त है, वे कुशील हैं, अतः साधु चाहे उत्तम तपस्वी हो तो भी स्त्रियों के साथ विहार न करे । टीका - 'जे एयं उंछ' मित्यादि, 'ये' मन्दमतयः पश्चात्कृतसदनुष्ठानाः साम्प्रतक्षिण एतद् - अनन्तरोक्तम् उञ्छन्ति जुगुप्सनीयं गह्यं तदत्र स्त्रीसम्बन्धादिकं एकाकिस्त्रीधर्मकथनादिकं वा द्रष्टव्यं, तदनु - तत्प्रति ये 'गृद्धा' अध्युपपन्ना मूर्च्छिताः, ते हि 'कुशीलानां' पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्छन्दरूपाणामन्यतरा भवन्ति, यदिवा काथिकपश्यकसम्प्रसारकमामकरूपाणां वा कुशीलानामन्यतरा भवन्ति, तन्मध्यवर्तिनस्तेऽपि कुशीला भवन्तीत्यर्थः, यत एवमत: 'सुतपस्व्यपि' विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहोऽपि भिक्षुः' साधुः आत्महितमिच्छन् 'स्त्रीभिः' समाधिपरिपन्थिनीभिः सह 'न विहरेत्' क्वचिद्गच्छेनापि सन्तिष्ठेत्, तृतीयार्थे सप्तमी, णमिति वाक्यालङ्कारे, ज्वलिताङ्गारपुञ्जवदूरतः स्त्रियो वर्जयेदितिभावः ॥१२॥ ___टीकार्थ - जो मूर्खबुद्धि, उत्तम अनुष्ठान को छोड़कर वर्तमान सुख की ओर दृष्टि देते हुए पूर्वोक्त स्त्री संसर्ग आदि तथा अकेले गृहस्थ के घर जाकर किसी स्त्री को धर्म सुनाना आदि निन्दनीय कार्यों में आसक्त रहता हैं, वह पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छन्द रूप कुशीलों में से कोई एक कुशीलस्वरूप हैं । अथवा काथिक, पश्यक, सम्प्रसारक और मामकरूप कुशीलों में से वह कोई एक कुशील हैं अर्थात् वे भी इनके मध्य में रहने के कारण कुशील हैं । स्त्री संसर्ग आदि निन्दनीय कर्मों का सेवन करने से साधु कुशील हो जाता है, अतः उत्तम तपस्या के द्वारा जिसने अपने शरीर को अत्यन्त तपाया है, ऐसा उत्तम तपस्वी साधु भी यदि अपना कल्याण चाहता है तो चारित्र को नष्ट करनेवाली स्त्रियों के साथ किसी जगह न जावे और उनके साथ कहीं न बैठे । यहां तृतीया के अर्थ में सप्तमी का प्रयोग हुआ है 'णं' शब्द वाक्य के अलङ्कार में आया है । साधु स्त्री को जलते हुए अङ्गारों के पुंज की तरह दूर से ही वर्जित करे, यह इस गाथा का भाव है ॥१२॥ कतमाभिः पुनः सार्धं न विहर्तव्यमित्येतदाशङ्कयाह - किन-किन स्त्रियों के साथ विहार न करना ? इस शंका का निवारण के लिए कहते हैअवि धूयराहि सुण्हाहि, धातीहिं अदुव दासीहि । महतीहि वा कुमारीहिं, संथवं से न कुज्जा अणगारे ॥१३॥ छाया - अपि दुहितृभिः स्नूषाभिः धात्रीभिरथवा दासीभिः । महतीभिर्वा कुमारीभिः संस्तवं स न कुऱ्यांदनगारः ॥ अन्वयार्थ - (अवि धूयराहिं) अपनी कन्या के साथ (सुण्हाहिं) पुत्रवधू के साथ (धातीहिं अदुव दासीहिं) दूध पीलानेवाली धाई के साथ अथवा दासी के साथ (महतीहिं वा कुमारीहिं) बड़ी स्त्री के साथ अथवा कुमारी के साथ (से अणगारे) वह साधु (संथव) परिचय (न कुजा) न २६०

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