________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १७
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् टीकार्थ - स्त्रियां सत् मार्ग की अर्गला स्वरूप हैं, इसलिए उनके घर पर जाना, उनके साथ आलाप संलाप करना, उनसे दान लेना तथा उनको देखना इत्यादि परिचय, उस प्रकार के मोह के उदय से लोग करते हैं । जो लोग स्त्रियों के साथ परिचय करते हैं, वे कैसे हैं? वे समाधि अर्थात् धर्मध्यान से अत्यन्त भ्रष्ट है अथवा धर्मध्यान जिनमें प्रधान है, ऐसे मन, वचन और काया के व्यापारों से वे भ्रष्ट हैं, वे पुरुष शिथिल विहारी हैं। स्त्रियों के साथ परिचय करने से समाधियोग का नाश होता है, इसलिए उत्तम साधु स्त्रियों की माया के पास नहीं जाते हैं। जो सुख का उत्पादक होने से अनुकूल होने के कारण निषद्या अर्थात् निवासस्थान के समान है, उसे निषद्या कहते हैं, वह स्त्रियों से की हुई माया है, उस माया के पास उत्तम साधु नहीं जाते हैं अथवा स्त्रियों के निवास स्थान को निषद्या कहते हैं, उस निषद्या के पास अपने कल्याण की इच्छा करने वाले साधु नहीं जाते हैं । यह जो स्त्री के साथ सम्बन्ध छोड़ने का उपदेश किया है, वह स्त्रियों को भी इस लोक तथा परलोक की हानि से बचाने के कारण हितकर है । कहीं कहीं इस गाथा के उत्तरार्ध में यह पाठ है - 'तम्हा समणा उ जहाहि अहिताओ सन्निसेजाओ' इसका अर्थ यह है - स्त्री का सम्बन्ध अनर्थ का कारण है, इसलिए हे श्रमण! (यहां तु शुब्द विशेषणार्थक है) तुम विशेषरूप से स्त्रियों के निवासस्थान को तथा स्त्रियों से की हुई सेवा भक्तिरूप माया को अपने कल्याण के निमित्त त्याग दो ॥१६॥
- किं केचनाभ्युपगम्यापि प्रव्रज्यां स्त्रीसम्बन्धं कुर्युः?, येनैवमुच्यते, ओमित्याह -
- क्या कोई प्रव्रज्या स्वीकार करके भी स्त्री के साथ सम्बन्ध कर सकते हैं, जिससे यह कहा जाता है? हां, कर सकते हैं, यह शास्त्रकार बतलाते हैं - बहवे गिहाइं अवहटु, मिस्सीभावं पत्थुया य एगे। धुवमग्गमेव पवयंति, वाया वीरियं कुसीलाणं
॥१७॥ छाया - बहवो गृहाणि अपहत्य मिश्रीभावं प्रस्तुताश्च एके । ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति वाचा वीर्य कुशीलानाम् ॥
अन्वयार्थ - (बहवे एगे) बहुत से लोग (गिहाई अवहट्ट) घर से निकलकर अर्थात् प्रव्रजित होकर भी (मिस्सीभावं पत्थुया) मिश्रमार्ग अर्थात् कुछ ग्रहस्थ और कुछ साधु के आचार को स्वीकार कर लेते हैं । (धुवमग्गमेव पवयंति) परन्तु वे अपने आचार को मोक्ष का मार्ग कहते हैं (वाया वीरियं कुसीलाणं) कुशीलों के वचन में ही वीर्य होता है (अनुष्ठान में नहीं)।
___ भावार्थ - बहुत लोग प्रव्रज्या लेकर भी कुछ गृहस्थ और कुछ साधु के आचार का सेवन करते हैं । वे लोग अपने इस मिश्रित आचार को ही मोक्ष का मार्ग कहते हैं, क्योंकि कुशीलों की वाणी में ही बल होता है, कार्य में नहीं।
टीका - 'बहवः' केचन गृहाणि 'अपहृत्य' परित्यज्य पुनस्तथाविधमोहोदयात् मिश्रीभावम् इति द्रव्यलिङ्गमात्रसद्भावाद्वावतस्तु गृहस्थसमकल्पा इत्येवम्भूता मिश्रीभावं 'प्रस्तुताः' समनुप्राप्ता न गृहस्था एकान्ततो नापि प्रव्रजिताः, तदेवम्भूता अपि सन्तो ध्रुवो - मोक्षः संयमो वा तन्मार्गमेव प्रवदन्ति, तथाहि - ते वक्तारो भवन्ति यथाऽयमेवास्मदारब्धो मध्यमः पन्थाः श्रेयान्, तथा हि - अनेन प्रवृत्तानां प्रव्रज्यानिर्वहणं भवतीति, तदेतत्कुशीलानां वाचा कृतं वीर्य नानुष्ठानकृतं, तथाहि - ते द्रव्यलिङ्गधारिणो वाङ्मात्रेणैव वयं प्रव्रजिता इति ब्रुवते न तु तेषां सातागौरवविषयसुखप्रतिबद्धानां शीतलविहारिणां सदनुष्ठानकृतं वीर्यमस्तीति ।।१७।। अपिच -
टीकार्थ - बहुतों ने घर छोड़कर भी फिर उस प्रकार के मोह के उदय होने से मिश्र अवस्था को प्राप्त किया है। वे द्रव्यलिङ्ग को ग्रहण करने मात्र से साधु और गृहस्थ के समान आचरण करने से गृहस्थ हैं, इस प्रकार वे मिश्रमार्ग को प्राप्त हुए हैं। वे न तो एकान्त गृहस्थ ही हैं और न एकान्त साधु ही हैं। वे ऐसे होकर भी अपने मार्ग को ही ध्रुव अर्थात् मोक्ष या संयम का मार्ग बतलाते हैं। वे कहते हैं कि - हमने जो इस मध्यम
1. पण्णता पा०।