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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा १५
मुण्डं शिरो वदनमेतदनिष्टगन्धं, 'भिक्षाशनेन भरणं च हतोदरस्य ।
गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वशोभं, चित्रं तथापि मनसो मदनेऽस्ति वाञ्छा ||१|| तथातिक्रोधाध्मातमानसाश्चैवमूचुर्यथा - रक्षणं पोषणं चेति विगृह्य समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् रक्षणपोषणे सदाऽऽद कुरु यतस्त्वमस्याः ‘मनुष्योऽसि मनुष्यो वर्तसे, यदिवा यदि परं वयमस्या रक्षणपोषणव्यापृतास्त्वमेव मनुष्यो वर्तसे, यतस्त्वयैव सार्धमियमेकाकिन्यहर्निशं परित्यक्तनिजव्यापारा तिष्ठतीति ॥१४॥ किञ्चान्यत् -
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टीकार्थ अकेली स्त्री के साथ एकान्त स्थान में बैठे हुए साधु को देखकर उस स्त्री के जातिवाले अथवा उसके सुहृदजनों के चित्त में दुःख होता है । तथा वे शंका करते हैं कि जैसे दूसरे प्राणी कामभोग में आसक्त हैं, इसी तरह यह साधु भी कामासक्त है क्योंकि यह साधु अपने सम्पूर्ण व्यापारों को छोड़कर सदा इस स्त्री का मुख देखता हुआ निर्लज्ज होकर इसके साथ बैठा रहता है । कहा भी हैं
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम्
(मुण्डं शिरो ) अर्थात् शिरतो मुण्डित है और मुख से बुरी बदबू निकलती है, एवं भिक्षान्न के द्वारा इस नीच पेट का भरण होता है, एवं सम्पूर्ण शरीर मल से मलिन और शोभा रहित है तो भी आश्चर्य है कि मन की इच्छा कामभोग में लगी है ।
तथा उस स्त्री के ज्ञातिवाले क्रोधित होकर कहते हैं कि तुम इस स्त्री का भरण पोषण भी करो क्योंकि तूं इसका पति है । यहां (रक्षणपोषणे ) इस पद में समाहार द्वन्द्व हुआ है। अथवा उस स्त्री के जातिवाले कहते हैं कि हम लोग तो इस स्त्री का केवल भरण पोषण करनेवाले हैं, इसका पति तो तूं है क्योंकि यह अपने समस्त व्यापारों को छोड़कर निरन्तर तुम्हारे साथ बैठी रहती है || १४ ||
समणंपि ददासीणं, तत्थवि ताव एगे कुप्पंति । अदुवा भोयणेहिं णत्थेहिं, इत्थीदोसं संकिणो होंति
छाया - श्रमणमपि दृष्ट्वोदासीनं, तत्रापि तावदेके कुप्यन्ति । अथवा भोजनैर्व्यस्तैः स्त्रीदोषशङ्किनो भवन्ति ।।
।।१५।।
अन्वयार्थ - (दासीणंपि समणं) रागद्वेषवर्जित तपस्वी साधु को भी (दट्टु) स्त्री के साथ एकान्त में बातचीत करते हुए देखकर (तत्यवि एगे कुप्पति) कोई कोई क्रोधित हो जाते हैं! (इत्यीदोसं संकिणो होंति) और वे स्त्री के दोष की शङ्का करते हैं। (भोयणेहिं णत्थेहिं) वे समझते हैं कि यह स्त्री साधु की प्रेमिका है, इसीलिए यह नाना प्रकार का आहार तैयार करके साधु को देती है ।
भावार्थ - रागद्वेष से वर्जित और तपस्वी भी साधु यदि एकान्त में किसी स्त्री के साथ वार्तालाप करता है तो उसे देखकर कोई क्रोधित हो जाते हैं और वे स्त्री में दोष की शङ्का करने लगते हैं। वे समझते हैं कि यह स्त्री साधु की प्रेमिका है, इसीलिए यह नाना प्रकार का आहार बनाकर साधु को दिया करती है ।
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टीका श्राम्यतीति श्रमणः साधुः अपिशब्दो भिन्नक्रमः तम् 'उदासीनमपि' रागद्वेषविरहान्मध्यस्थमपि दृष्ट्वा, श्रमणग्रहणं तपः खिन्नदेहोपलक्षणार्थं, तत्रैवम्भूतेऽपि विषयद्वेषिण्यपि साधौ तावदेके केचन रहस्य - स्त्रीजल्पनकृतदोषत्वात्कुप्यन्ति, यदिवा पाठान्तरं 'समणं दट्टुणुदासीणं' 'श्रमणं' प्रव्रजितं 'उदासीनम्' परित्यक्तनिजव्यापारं स्त्रिया सह जल्पन्तं 'दृष्ट्वा' उपलभ्य तत्राप्येके केचन तावत् कुप्यन्ति, किं पुनः कृतविकारमितिभावः, अथवा स्त्रीदोषाशङ्किनश्च ते भवन्ति, ते चामी स्त्रीदोषाः 'भोजनैः' नानाविधैराहारैः 'न्यस्तैः ' साध्वर्थमुपकल्पितैरेतदर्थमेव संस्कृतैरियमेनमुपचरति तेनायमहर्निशमिहागच्छतीति, यदिवा - भोजनैः श्वशुरादीनां न्यस्तैः' अर्धदत्तैः सद्भिः सा वधूः साध्वागमनेन समाकुलीभूता सत्यन्यस्मिन् दातव्येऽन्यद्दद्यात्, ततस्ते स्त्रीदोषाशङ्किनो भवेयुर्यथेयं दुःशीलाऽनेनैव सहास्त इति, निदर्शनमत्र यथा कयाचिद्वध्वा ग्राममध्यप्रारब्धनटप्रेक्षणैकगतचित्तया पतिश्वशुरयोर्भोजनार्थमुपविष्टयोस्तण्डुला
1. भिक्षाटनेन प्र० । 2. विहितो विहितो० ।