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सूत्रकृतानेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १६
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् इतिकृत्वा राजिकाः संस्कृत्य दत्ताः, ततोऽसौ श्वशुरेणोपलक्षिता, निजपतिना क्रुद्धेन ताडिता, अन्यपुरुषगतचित्तेत्याशङ्कय स्वगृहानिर्घाटितेति ॥१५॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - जो तप करता है, उसे श्रमण कहते हैं । साधु को श्रमण कहते हैं। यहां अपि शब्द का क्रम भिन्न है। जो पुरुष रागद्वेष रहित होने के कारण मध्यस्थ है और तपस्या से खिन्न शरीर है अर्थात् जो विषय सुख का द्वेषी है, ऐसे साधु को भी एकान्त में स्त्री के साथ वार्तालाप करते देखकर कोई क्रोधित होते हैं। यहां 'श्रमण' शब्द का ग्रहण तपस्या से खिन्न शरीर का उपलक्षण है । अथवा यहां 'समणं दठूणुदासीणं' यह पाठान्तर पाया जाता है । अर्थात् जो साधु अपना व्यापार छोड़कर स्त्री के साथ वार्तालाप करता है, उसे देखकर कोई क्रोधित होता हैं । जब कि रागद्वेषवर्जित और तपस्वी साधु को भी स्त्री के साथ एकान्त में वार्तालाप करते देखकर कोई पुरुष क्रोधित हो जाता हैं तब फिर जिस साधु में स्त्री के संसर्ग से विकार उत्पन्न हो गया है, उसकी तो बात ही क्या है ? अथवा स्त्री के साथ एकान्त में वार्तालाप करते हुए साधु को देखकर लोग स्त्री के विषय में दोष की आशंका करते हैं, वे स्त्री सम्बन्धी दोष ये हैं - वे समझते हैं कि यह स्त्री नाना प्रकार का आहार इस साधु के लिए बनाकर इसे देती है, इसीलिए यह साधु निरन्तर यहां आया करता है । अथवा जो स्त्री श्वशूर आदि को आधा आहार परोस कर साधु के आने पर चंचलचित्तवाली होती हुई किसी वस्तु के स्थान में दूसरी वस्तु श्वशूर आदि को यदि दे देती है तो वे लोग उस स्त्री पर शंका करते हैं कि यह दुःशीला इस साधु के साथ रहती है। इस विषय में यह दृष्टान्त है- कोई स्त्री भोजन पर बैठे हए अपने श्वशर और पति को भोजन परोस रही थी परन्तु उसका चित्त उस समय ग्राम में होने वाले नट के नृत्य देखने में था इसलिए उसने चावल के धोखे से राई उबालकर अपने श्वशूर और पति को परोसा । श्वशूर ने जान लिया कि इसका चित्त ठीकाने नहीं है और पति ने क्रोधित होकर उसे पीटा तथा यह अन्य पुरुष में चित्त रखती है, यह जानकर उसे अपने घर से निकाल दिया ॥१५॥
कुव्वंति संथवं ताहिं, पब्भट्ठा समाहिजोगेहिं। तम्हा समणा ण समॆति, आयहियाए सण्णिसेज्जाओ
॥१६॥ छाया - कुर्वन्ति संस्तवं ताभिः प्रभ्रष्टाः समाधियोगेभ्यः ।
तस्मात् श्रमणाः न संयन्ति आत्महिताय संनिषद्याः ॥ अन्वयार्थ - (समाहिजोगेहिं) समाधियोग अर्थात् धर्मध्यान से (पब्मट्ठा) भ्रष्ट पुरुष ही (ताहिं संथवं कुव्वंति) स्त्रियों के साथ परिचय करते हैं । (तम्हा) इसलिए (समणा) साधु (आयहियाए) अपने कल्याण के लिए (सण्णिसेजाओ) स्त्रियों के स्थानपर (ण सौति) नहीं जाते हैं।
भावार्थ - धर्मध्यान से भ्रष्ट पुरुष ही स्त्रियों के साथ परिचय करते हैं, परन्तु साधु पुरुष अपने कल्याण के लिए स्त्रियों के स्थान पर नहीं जाते हैं ।
टीका - 'कुव्वंती'त्यादि, 'ताभिः' स्त्रीभिः - सन्मार्गार्गलाभिः सह 'संस्तवं' तद्गृहगमनालापदानसम्प्रेक्षणादिरूपं परिचयं तथाविधमोहोदयात् 'कुर्वन्ति' विदधति, किम्भूताः? - प्रकर्षेण भ्रष्टाः - स्खलिताः 'समाधियोगेभ्यः' समाधिः- धर्मध्यानं तदर्थं तत्प्रधाना वा योगा - मनोवाक्कायव्यापारास्तेभ्यः प्रच्युताः शीतलविहारिण इति, यस्मात् स्त्रीसंस्तवात्समाधियोगपरिभ्रंशो भवति तस्मात्कारणात् 'श्रमणाः' सत्साधवो 'न समेन्ति' न गच्छन्ति, 'सत् शोभना सुखोत्पादकतयाऽनुकूलत्वान्निषद्या इव निषद्या स्त्रीभिः कृता माया, यदिवा स्त्रीवसतीरिति, 'आत्महिताय' स्वहितं मन्यमानाः, एतच्च स्त्रीसम्बधपरिहरणं तासामप्यैहिकामुष्मिकापायपरिहाराद्धितमिति, क्वचित्पश्चार्धमेवं पठ्यते - 'तम्हा समणा उ जहाहि अहिताओ सन्निसेज्जाओ' अयमस्यार्थः - यस्मात्स्त्रीसम्बन्धोऽनर्थाय भवति, तस्मात् हे श्रमण! - साधो!, तुशब्दो विशेषणार्थः, विशेषेण संनिषद्या - स्त्रीवसतीस्तत्कृतोपचाररूपा वा माया आत्महिताद्धेतोः 'जहाहि' परित्यजेति ॥१६॥ 1. सदिति शोभनः पा०।
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