Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 299
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा ११ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् छाया - तस्मात्तु वर्जयेत् खीः, विषलिप्तमिव कण्टकं ज्ञात्वा । एकः कुलानि वशवी आख्याति न सोऽपि निर्ग्रन्थः ॥ अन्वयार्थ - (तम्हा उ) इसलिए (विसलितं व कंटगं नच्चा) स्त्री को विष से लिप्त कण्टक के समान जानकर (इत्थी वजए) साधु स्त्री को वर्जित करे । (वसवत्ती) स्त्री के वश में रहनेवाला जो पुरुष (ओए कुलाणि) गृहस्थ के घर में जाकर अकेला धर्म का कथन करता है। (ण सेवि णिग्गंथे) वह भी निर्ग्रन्थ नहीं है। भावार्थ - स्त्रियों को विषलिप्त कण्टक के समान जानकर साधु दूर से ही उनका त्याग करे । जो स्त्री के वश में होकर गृहस्थों के घर में अकेला जाकर धर्मकथा सुनाता है, वह साधु नहीं है। टीका - यस्मात् विपाककटुः स्त्रीभिः सह सम्पर्कस्तस्मात्कारणात् स्त्रियो वर्जयेत् तु शब्दात्तदालापमपि न कुर्यात्, किंवदित्याह - विषोपलिप्तं कण्टकमिव 'ज्ञात्वा' अवगम्य स्त्रियं वर्जयेदिति, अपि च - विषदिग्धकण्टकः शरीरावयवे भग्नः सन्ननर्थमापादयेत् स्त्रियस्तु स्मरणादपि, तदुक्तम् - विषस्य विषयाणां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । उपभुकं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि ||१|| तथा - वरि विस खडयं न विसयसह डकसि विसिण मरंति । विसयामिन्स पुण घारिया पर णरएहि पडति ||१|| तथा 'ओजः' एकः असहायः सन् 'कुलानि' गृहस्थानां गृहाणि गत्वा स्त्रीणां वशवर्ती तन्निर्दिष्टवेलागमनेन तदानुकूल्यं भजमानो धर्ममाख्याति योऽसावपि 'न निर्ग्रन्थों' न सम्यक् प्रव्रजितो, निषिद्धाचरणसेवनादवश्यं तत्रापायसम्भवादिति, यदा पुनः काचित्कुतश्चिनिमित्तादागन्तुमसमर्था वृद्धा वा भक्तदाऽपरसहायसाध्वभावे एकाक्यपि गत्वा अपरस्त्रीवृन्दमध्यगतायाः पुरुषसमन्विताया वा स्त्रीनिन्दाविषयजुगुप्साप्रधानं वैराग्यजननं विधिना धर्म कथयेदपीति।।११॥ टीकार्थ - स्त्रियों का संसर्ग परिणाम में कटु होता है इसलिए स्त्री का संसर्ग वर्जित करना चाहिए । तु शब्द से यह बताया गया है कि - स्त्रियों के साथ आलाप भी नहीं करना चाहिए । किसकी तरह? सो बतलाते हैंविष से लिप्त कण्टक के समान समझकर स्त्रियों को वर्जित करना चाहिए । विष से लिप्त कण्टक तो शरीर के किसी अंग में ट्टा हुआ अनर्थ उत्पन्न करता है परन्तु स्त्रियां स्मरण से भी अनर्थ उत्पन्न करती हैं। अत एव कहा है कि (विषस्य) अर्थात् विष और विषय का परस्पर अत्यन्त अंतर है, विष तो खाने पर प्राण का हरण करता है परन्तु विषय स्मरण से भी प्राण का नाश करते हैं । तथा विष खाना अच्छा परन्तु विषय का सेवन अच्छा नहीं क्योंकि विष खाने से जीव एक ही बार मरण कष्ट पाता है, परन्तु विषयरूपी मांस के सेवन से मनुष्य नरक में गिरकर बार - बार दुःख भोगता है । जो पुरुष स्त्री के वश में होकर उसे अनुकूल करने के लिए उसके बताये हुए समय पर अकेले गृहस्थ के घर में जाकर धर्म का कथन करता है, वह निग्रंथ अर्थात यथार्थ साध नहीं है क्योंकि निषिद्ध आचरण के सेवन करने से उसका पतित होना संभव है । परंतु यदि कोई स्त्री किसी कारणवश साधु के स्थान पर आने में असमर्थ हो अथवा कोई वृद्धा स्त्री हो तो दूसरे सहायक साधुओं के न होने पर अकेला भी साधु उसके पास जाकर दूसरी स्त्रियों से वेष्टित अथवा पुरुषों से युक्त उस स्त्री को स्त्रीनिन्दा एवं विषय निन्दाप्रधान वैराग्योत्पादक धर्म कहे तो कोई आपत्ति नहीं है ॥११॥ अन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः सुगमो भवतीत्यभिप्रायवानाह - अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा कहा हुआ अर्थ सुगम होता है, इस अभिप्राय से शास्त्रकार 'जे एयं उंछं' 1. वरं विषं जग्धं न विषयसुखं एकशो विषेण म्रियते । विषयामिषघातिताः पुनर्नरा नरकेषु पतन्ति ।।१।। २५९

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